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________________ या-बाटीका वि न, प्रतियोगितानस्याभावप्रत्यक्षाऽहेतुरुपे विना प्रतियोगिशान 'न' हत्याकारकप्रत्ययापः । न पाभावत्वस्यापीदन्त्वेने प्रहादापादकाभावः, पथममभाषाभाषत्वयोनि तदभाव के निवेश में प्रमाणाभाव-पूर्वपश्न अनुवर्तमान] यदि 'सबभाग के लौफिकमन्यक्ष में नरभाव के यत्किञ्चित् प्रतियोगी का ज्ञान कारण होता 'पेसा मान कर सक व्यभिचार का वारण करे तो इस प्रकार के कार्यकारक भाष में कोई प्रमाण होने से पर मी डोक नहीं है। यदि कई कि-"किसी भी प्रति. योगी का मान न रखो र सबके औ..4 क रो ले कार्यकारणभाष मान्य है"- तो यह लीक नहीं है, क्योंकि प्रतियोगिहान का सर्वण भभाव होने र भी दिमस्वरूप से अभाय कालोकिकप्रत्यक्ष माना जाता है। जैसे पर सभी को। है कि जिस व्यक्ति को मिस समय पछि आदि का ज्ञान नहीं रहता उस व्यक्ति को उस समय भी सम्मिरूप हवय आदि में 'होयम्सद में यह है इस प्रकार यहि माथि से अधिशेषित बहुभ्यभाष का सरवर लोकिकत्याहोता। यदि यह कहे किपति आदि से विशेषित अमाव के प्रत्यक्ष में विभादि का ज्ञान कारण है, इस कार्यकारणभाष को मानमा आवश्यक है, क्योंकि त भादि का हान न रहने पर पति आदि से विशेषित अभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता, और ऐसा मानने में व्यभिचार मादि दोष भी नहीं है"-तो यह टीक नहीं है, क्योंकि 'रक्तो वयः' इस बान के न राने पर 'रतपणवान पुरुष इस प्रकार का शान न होने से धिशिष्टवैशिफवाषगाडी भनुभष के प्रति विशेषणताक्छेदकप्रकारकमान को कारण मानना भाषषयक होता है। वे पहि मास्तिदमें वाइन्यभाव है' पा प्रत्यक्ष भी भभाष में बहिस्थविशिष के प्रतियोगिताकर वैशिएप का अवगाहन करना है, अतः पति की महान वशा में उसकी मापति नहीं हो सकती, इस लिये उक्तरीति से विनिवेशिरपाषणाही अनुभव के प्रति विशेषणसापकप्रकारकशाम की सर्वमान्य कारणमा से ही सामजस्य हो जाने से प्रतियोगी विशेषित अभाध के प्रत्यक्ष में प्रतियोगिझान को पृथक कारण मानमा प्प है। निष्कर्ष पर है कि जप अभावप्रत्यक्ष में प्रतियोगिताम को कारणता प्रामाणिक नहीं है तब तम को तेमोऽभारम्पकार मानने में भी कोई दोष नही है, पौकिशोबान न होने पर भी उसका प्रत्यक्ष होने में कोई बाबा नहीं है। न' इत्या कारकप्रत्यक्षापत्ति-उत्तरपक्षारम्भ] बपर्युक्त के विकत व्याख्याकार का कहना यह है कि प्रभाव प्रत्यक्ष में प्रतियोगिशाम को कारण न मानने का पक्ष उचित नहीं है, क्योकि उकाल में प्रतियोगिताम के अभाधकाल में प्रतियोगी से विशेषित अभाय को विषय न करने वाले केवल भभाषe अप से प्रभाष को विषय करने वाले 'न' न्याकारक प्रत्यक्ष की भापत्ति होगी । यदि यह कहें कि-"अमावस्वरूप से अभायप्रयक्ष की सामग्री के सानिधान के समय बिग के माधक सग्निकर्ष का भी सम्बिधान अवश्य होने से मनायव में दमय का भान अनिवार्य है, मनः स्वरूपतःनिविशेषणभमायग्ध को घिषय करने वाले '' इस्पाकारक मस्पक्ष का कोई मापावक न होने से उनकी भापति नही हो सकती'- तो यह ठीक १- रथेनाम० इन से० प्रती ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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