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शा०या० समुध्यय
मूलगत मङ्गल पद्य का अक्षरार्थ इस प्रकार है ---
परमारमा-जिस आत्मा ने अपने धातीकों का क्षय कर डाला है। प्रणम्यप्रणाम का अर्थ है प्रकर्ष से यानी अतिशय भक्ति और अतिशय श्रद्धा के साथ नमस्कार । अल्पबुद्धीनां सत्त्वानाम्-अल्पबुद्धिसत्त्व का अर्थ है-वे जोष, जिनकी बुद्धि विभिन्न शास्त्रों के सिद्धान्तों को, पकत्र संकलन किये विना समझने में असमर्थ रहती है। हितका म्यया-हितकाम्या का अर्थ है अनुमहकी छा।
शास्त्रवार्तासमुच्चयम्-'शास्त्रवार्तासमुच्चय' शब्द में जो 'समुच्चय' शब्द सुन पक्ता है वाह 'सम्' और 'उत्' इन दो उपसगोंसे युक्त 'चि' धातु से भावरूप अर्थ में कृत्संक्षक 'म' प्रत्यय करने से निष्पन्न हुआ है। "भिहितो भायो द्रव्यवस् प्रकाशते कृत्संक्षक प्रत्यय से अभिहित भाव द्रध्यविशेषण के समान प्रतीत होता है' इस नियम के अनुसार समुउसय शब्द का संकलनरूप अर्थ शास्त्रवार्ता का विशेषण हो जाता है, तदनुसार शास्त्रवातालमुच्चय का अर्थ होता है 'बौद्ध वैशेषिक आदि समस्त दर्शन शास्त्रों के पका संग्रह किये गये सिद्धान्त, क्योंकि 'वार्ता शब्द से प्रकत में सिद्धान्तप्रवादरूप अर्थ विवक्षित है। प्रन्थकार का कहना है कि वे इस ग्रन्थ में सभी दर्शनशास्त्रों के संकलित सिद्धान्तों का प्रतिपादन करेंगे।
'शास्त्रवार्तासमुच्चयम् अभिधास्ये' इस वाक्य में समुच्चय शब्द के उत्तर में द्वितीया विभक्ति अम् का श्रवण होता है, उसका अर्थ है कर्मता । यह कर्मता अभिधास्ये शन्द के संनिधान के कारण अभिधान-कर्मतारूप है। नियमानुसार उस में द्वितीया विभक्ति के प्रतिभूत समुच्चय शब्द के सङ्कलनरूप अर्थ का अन्वय होना चाहिए किन्तु यह सम्भव ना है क्योंकि सकलम का अभिधान नहीं हो सकता, अतः उसमें सङ्कलित शास्त्रबार्ताका मन्धय होता है, जिससे शास्त्रयार्ता के प्रतिपादन की प्रतीति होती हैं। वितीयार्थ के अम्बय की इस प्रकार व्यवस्था कर देने से उसके अन्वय की अनुपपत्ति का परिहार हो जाता है, द्वितीयार्थ के अन्षय की उक्त व्यवस्था को स्वीकार करने में कोई बाधा भी नहीं है क्योंकि जहां कृत्प्रत्यय का अर्थ द्रव्य-विशेषणपरक होता है वहाँ कृत्प्रत्ययके उत्तरवर्ती पदार्थ के साथ उस प्रत्यय के अर्थ से अन्वित पूर्वपदार्थ काही अन्धय माना जाता है। अतः कृत्प्रत्ययाम्त समुच्चय शब्द के संकलनरूप अर्थ को पूर्ववर्ती पदार्थ शास्त्रधार्ता का विशेषण बनाकर संकलित शास्त्रवार्ता के उत्तरवर्ती पदार्थ शास्त्र वार्ता का अभिधानकर्मवा के साथ अन्धय मानने में कोई असङ्गति नहीं है।
इस पर यदि यह शङ्का की जाय कि "समुच्चरूप सध्द के उत्तर विद्यमान द्वितीया विभक्ति के अर्थ के साथ समुच्चय शब्दार्थ का अन्वय न कर शास्त्रवार्ता का अम्घय क रने पर प्रत्यय के अर्थ में प्रकृतिभूत पद के अर्थ का अन्वय न होने से 'प्रत्यय अपने प्रकृत्ति भूत पद के अर्थ से अन्धित ही अपने अर्थ के खोधक होते हैं। इस नियम का विरोध होगा" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'सेषां मोहः पापीयान् नामूढस्येतरोत्पत्तेः अर्थात् राग शेष व मोह में मोह ही पापिष्ट है, क्योंकि मोह रहित को राग द्वेष उत्पन्न नहीं होते हैं। इस
१. दृष्टव्य-पाणिभिके अष्टाध्यायी पर पतञ्जलि के महामाण्य में उपपदमति २०२११९. सार्वधातुके यक् ॥१॥६. और एकस्य सकरच ५। । । १९ सूत्रों का भाष्य ।