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स्या० क० टीका व हिं. वि०
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मधमाऽधमतराऽधमतमादिजातीनां संश्रय- आश्रयणं यद- यस्मात्कारणात्। अतो हेतोः अत्र जगति सुखं प्रवृत्युपयोगि न विद्यते, व्यवहारनः प्रतिभासमानस्याऽपि सांसारिकस्य सुखस्य बहुतरदुःखानुविद्धत्वेन हेयत्वात् निश्चयतस्तु कर्मोदयन नितत्वात् सुखशब्दवाच्यतामेव नेदमास्कन्दति ।
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तदुक्तं 'विशेषावश्यके' – (एकादशगणधरवादे गाथा ३३-३४-३५) "पुण्णफलं दुक्ख चिय कम्मोदयओ फलं व पावस्स | न पावकले समं पच्चक्खविराडिया चैवं ॥ जत्तो वि पच्चख सोम्म ! गृहं गत्थि दुक्खमेवेदं । तपडियारविभिष्णं तो पुष्णफलं ति दुक्ख वि ॥ विसयहं दुक्ख' चिय दुक्खपडियारओ तिमिच्छि व्य । तं सुहवयासओ ण य उवयारो विणा तच्च ॥ इति ।। में उसके आमुष्मिक - वर्तमान कारिका का अर्थ इस प्रकार है
जीवन के बाद के दुःख का प्रतिपादन किया जाता है।
मनुष्य का बार बार जन्म और बार बार मरण होता है, बार बार उसे हीन, हीनतर और हीनतम जातियों में जाना पड़ता है । इस लिये संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं हैं जो उसके लिये सुखप्रद हो, तथा जिसके लिये उसको प्रयत्नशील होना उचित हो । पुनर्जन्म का अर्थ है-वस मान जन्म के बाद होने वाला जन्म । मनुष्य के इस पुनर्भम्म का होना तब तक अनिवार्य है जब तक मनुष्य का अदृष्ट यानो पूर्वजन्म में किये गये दुष्कृतों से उत्पन्न कर्मों का संचयरूप जन्मान्तर का बीज विद्यमान है । अतः बीज के रहने पर जन्मान्तररूप अक्कुर का दोना आवश्यक है । पुनः मृत्यु का अर्थ है, वर्त्तमान जन्म में होने वाली मृत्यु के बाद होने वाले जन्म में होने वाली मृत्यु । पुनर्जन्म होने पर पुनर्मृत्यु का होना अवश्यंभावी है, क्योंकि प्रत्येक जन्म मृत्यु से व्याप्त होता है। 'जातस्य हि
यो मृत्युः' उत्पन्न होने पर मरना ध्रुव (निश्चित) है। पूर्वजन्म में संचित किये गये नीच गोत्र आदि कर्मों के फलोन्मुख होने पर मनुष्य को अपने पूर्वकर्मानुसार कभी दीन, कभी starर और कभी हीनतम जाति में उत्पन्न होना पड़ता है; और यह कम मोक्ष लाभ न होने तक चलता रहता है। इन्हीं सब कारणों से संसार में ऐसा कोई सुख नहीं
जिसे मनुष्य की प्रवृति का उद्देश्य बनाया जा सके। संसार में व्यवहारतः जिसे सुख समझा जाता है वह भी बहुतर दुःखों से ग्रस्त होने के कारण त्याज्य होता है । निश्चय उष्टि से देखा जाय तो संसार में जिसे सुख कहा जाता है उसमें सुत्र शब्द से व्यवहृत होने की पात्रता हो नहीं होती, क्योंकि कर्मोदय से उत्पन्न होने के कारण वास्तव में वह भी दुःख दी है। यह अनुमान से सिद्ध करते हैं,
(संसार के सुख दुःखरूप हैं )
'विशेषावश्यक - माध्य' में कहा गया है कि
"पाप के फल के समान पुण्य का फल भी कर्मोदय से उत्पन्न होने के कारण