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________________ शास्त्रवार्तासमुदाय पश्चाच्च दुखानुवन्धित्वं प्रियसंयोगस्योक्तम् । यौवनमपि-कुसुमारमित्रं वयोऽपि,-कुत्सिताचरणस्य कामकोडादिगर्हिताचारस्याम्पद-मूलभूतम् , अनित्यं च ॥१२।। तथा...- तीनो दुःसहो यः क्लेशवों=निधितशरप्रयाइपरायणकिराताऽऽक्रान्तविकटकान्तारगमन-प्रतिकूलपवनसमुच्छल बहलजलपरिक्षुब्ध-जलधियानपात्रारोहण-प्रकृतिभी. षणराजसेवादिजन्यः, ततः समुद्भव उत्पत्तिर्यासामेतादृश्यः पदोऽनित्या विद्युद्विलसितवदकस्मात् नश्वराः । तथा, इह-जगति, सर्वभावनि बन्धन=सकलव्यवहारकारणम् , जीवितं चानित्यम् ॥१३॥ इदमैहिकं दुःखमुक्तम् , अथाऽऽमुष्मिकं तदाह 'पुनरितिमूलम्--पुनर्जन्म पुनर्मु युहीनादिस्थानसंश्रयः । पुनः पुनश्च यदतः सुस्वमत्र न विद्यते ॥१४|| पुनरेतज्जन्मापेक्षयाऽग्रिम जन्म, बीजरूपस्थ जन्मान्तरनिमित्तादृष्टस्य सत्वेऽकुररूपस्य जन्मान्तरस्य प्रादुर्भावात् । तथा पुनर्जन्मनि सनि पुनर्मुत्युः, जन्मनो मृत्युनान्तरीयकत्वात् । तथा प्रागुपाचनीचरौत्रादिकमविपाकात् पुनः पुनश्चचारं वारं च, होनादिस्थानाना संसार में सुस्त्री रहने के लिये मनुष्य मुण्यरुप से चार वस्तु को बाहता हैप्रियसयोग, यौयन, सम्पत्ति और जीवन । किन्तु ये चारों वस्तु मनुष्य के लिये दुःस्त्र का ही सर्जन करती हैं । प्रियसंयोग में ईष्या और शोक सदा सन्निहित रहते हैं । विरोधी के उत्कर्ष को देख कर उसके पति ईा होती है। प्रियजनों तथा इष्टवस्तु के विनाश की चिन्ता से शोक होता है। प्रियसंयोग स्वयं स्वप्न में प्राप्त कामिनी के प्रणयव्यापार के समान घिनश्वर होता है । इस प्रकार ईर्ष्या, शोक और अनित्यता से प्रस्त होने के कारण प्रियसंयोग प्राप्ति के पूर्व और प्राप्ति के बाद दोनों काल में दुःखमय होता है । योवन पुष्पधन्वा-कामदेव का मित्र है। कामधेटा आदि निन्दनीय कर्मो का मूल तथा अस्थिर होने से बह भी दुखःमय है ॥१२॥ सम्पति दुस्सह क्लेशों से अर्जित की जाती है। उसके लिये कभी ऐसे भयंकर जंगलों की यात्रा करनी पड़ती है जई तीखे बाणों की वर्षा करने वाले जंगली जाति के लोग चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं। कभी विपरीत वायु को झंकारों से जलसमूह में हममगाती जवानों से समुद्र की यात्रा करनी पडतो है, और कभी अनेक प्रकार के संकटों से भरी भीषण राजसेवा आदि का शरण लेना पड़ा है। इतने विशाल क्लेशों से सम्पत्ति उपलब्ध होने पर भी बिजली की चमक के समान क्षणभस्थर होती है, किसी भी समय हाथ से याहर हो सकती है। जीवन को सभी व्यवहारों का आधार है, यह इतना दुर्बल है कि कीसी भी क्षण समाप्त हो सकता है । इस प्रकार मनुष्य का ऐहिक जीवन संकटों से भरा है, संसार का प्रत्येक विषय जीवों के लिये दुखों का स्रोत है ॥१३॥ पूर्व दो कारिकाओं में मनुष्य के पेहिक दुःन का विवेचन किया है, इस कारिका
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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