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स्पा० का टीका घ हि० वि० यदुक्तम् 'अन्यत्सर्व दुःस्वकारणमिति', तदेव विवेचयति भनित्य' इति-- मूलम् . अनित्यः प्रियसंयोग इहेाशोकवत्सलः ।
मनिल्यं यौवनं चापि कुस्मिताऽऽचरणास्पदम् ॥१२॥ अनित्याः सम्पदस्तानक्लेशवर्गसमुद्भवाः ।
अनित्यं जीवितं चेह सर्वभावनिबन्धनम् ॥१३॥ 'इह' संसारे, इर्ष्या-पतिपक्षाभ्युच्चयजनितो मत्सरविशेषः । तदत्ययादिचिन्ताप्रभयो दुःखभेद:-शोकः, तौ वत्सलावयश्योपनतकारणौ यत्र ताश; प्रियसंयोगोचल्लभसमागमः, अनित्यः- स्वप्नसमागतकामिनीविलासवत् पर्यन्तविनश्वरप्रकृतिः । एनेन पूर्व इतना प्रयल है, कि वह जन्म, जरा और मृत्यु के दुःत्र का जानता है, उसकी चिन्ता भी करता है, किन्तु आश्चर्य है कि वह संसार के विषयों से विरक्त नहीं हो पाता।"
यह भी कल्पना की जा सकती है कि निषिद्धकर्म से होने पाले शास्त्रकथित दुःख में जो घलवत्ता होती है, कर्मोदयदोष के कारण उसका बाध हो जाता है, निषिकर्मजन्य दुःख में रहा बलवत्त्व कर्मोदय दोष से उसे लगता नहीं । वह दुःख सामान्यदुःखरूप लगता है, बलघद् दुःखरूप नहीं । और बलवदुःखजनकता का प्रान ही प्रष्टसाधनताशानाधीन प्रवृत्ति में प्रतिबंधक होता है. अतः यहाँ प्रतिबन्धक का अभाव हो जाने से निषिद्धकर्म में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार प्रवृत्ति के प्रति बलवान दुःख की असाधता के शान को कारण मानने पर भी निषिद्ध कर्म में सम्यग्री अविरत पुरुष की प्रवृति का होमा सहज है। व्याण्याकार का संकेत है कि इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी के लिये उनके 'अध्यात्ममतपरीक्षा' ग्रन्थ का अवलोकन करना चाहिये ।
शंका होती है कि ऐसे कुत्सित कर्मों में मनुष्य की प्रवृत्ति पर रोक लगाने में शास्त्र यदि असमर्थ है तो शास्त्र की रचना, उसका अध्ययन और उसका अभ्यास निष्फल है,"-इसका उत्तर यह है कि निकाचित कर्मों के उदय से होने वाली निषिद्धकमों में प्रवृत्ति रोकने में शास्त्र असमर्थ होने पर भी, अनिकाचित कर्मों के उदय से होने वाले निषिद्ध कर्मों के परिहार के लिये उसकी जपादेयता होने के कारण उसकी रचना, उसका अध्ययन और उसके अभ्यास की सार्थकता निर्याध है। क्योंकि शास्त्रबोध के द्वारा जनित शुभभाय से अनिकाचित कर्मों का विशकोदय स्थगित होने पर मात्र प्रदेशोश्य से फर्म का नाश हो जाता है। इसलिए तत्कर्म विपाकरूप मोह नहीं ऊठता, फलतः निषिद्ध कर्म में प्रचुत्ति रुक जाती है ॥११॥
११वीं कारिका में धर्म से भिन्न घस्तुमात्र को दुःख का कारण कहा गया है, इन कारिकाओं में उसका घिवेवन किया गया है। कारिकाओं का अर्थ इस प्रकार है
२. कर्मोदय का तात्पर्य उस प्रबल अविति प्रेरक निकाचित कर्म के विपाक में है जिससे नाध्य होकर मनुष्य को निषिद कम करना पड़ता है । उसे दोष इसलिथे कहा जाता है कि उससे निषिद्ध कर्म में प्रवृत्ति के प्रतिबन्धक का विघटन होता है। निकाचित' की व्याख्या के लिय देखिए पृ० २५ की टिप्पण (81,