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शास्त्रपातासमुच्चय
--. .................. तदुक्तम् - "जाणिज्जई चिन्तिज्जइ जम्म-जरा-मरणसंभवं दुक्खम् ।
न य विसयेसु विरज्जइ, अहो, ! सुबद्धो कवडगंठी ॥१॥ इति । शास्त्रबोधितं दुःखबलवत्त्वमेव वा कर्मोदयदोषणाऽपोद्यत इति । अधिकमस्मत्कृत'अध्यात्ममतपरीक्षायाम्' ।
नावेरमेतादृशकर्मणः शास्त्रेणाऽनपनयात् तद्वैफल्यमिति चेत् ? न, अनिकाचितस्य तस्य शास्त्राभ्यासनिवर्तनीयत्वादिति दिक् ॥११॥ के कारण उस कर्म में भी उसकी प्रवृत्ति न होगी, जब कि प्रचुर दुख के जनक कर्म में भी रागान्ध पुरुष को बलवान् द्वेष न होने से उस कर्म में उसकी प्रवृत्ति होगी।"
यह कल्पना भी प्रकार करने गोग्ग माहीं है, क्योंकि निरिक्कम में बलवान् द्वेष की उत्पत्ति अनिवार्य है, अन्यथा श्वधा से पिडित मनुष्य को विपिन अन्न के भोजन में भी बलवान द्वेष की उत्पत्ति न होने से क्षुधा की निवृत्ति के लिए उस अन्न के भोजन में भी प्रवृत्ति अनिवार्य हो जायगी।
इन सभी धियारों से यह फलित होता है कि प्रवृत्ति के प्रति केचल इष्टसाधनता का शान मात्र हो कारण नही है किन्तु बलवान् अनिष्ट की असाधनता का मान भी कारण है, शास्त्र से निषिद्धकर्म में बलवान अनिष्ट की साधनता का शान होने से उस में बलवान अनिष्ट की असाधनता का ज्ञान नहीं हो सकता अतः अपेक्षित सभी कारणों का सन्निधान न होने से निषिद्ध कर्म में सम्यग्दृष्टि अविरतपुरुष की प्रवृत्ति का उत्पादन अशक्य है।
(अविरतसम्यादृष्टि-निषिद्धकर्म-प्रवृत्तिकारणताविचार-उत्तरपक्ष) इस के उसर में ध्यास्याकार का कहना है कि-प्रवृत्ति के प्रति इष्टसाधनता का शान मात्र ही कारण है, बलवान् अनिष्ट की असाधनता का ज्ञान कारण नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति फल की उत्कट इच्छा का अभाव होने पर दुःस्वजनकन्ध का शान अथवा प्रवृत्ति के विषयभूत कर्म के प्रति प्रवर्तनेच्छु पुरुष का बलवान् द्वेष प्रवृत्ति का प्रतिबन्धक है। विषमिश्र अन्न के भोजन में बलवान् दुःख के जनकत्व का ज्ञान होने से उससे होने वाले क्षुधानिवृत्तिरुप फल की इच्छा का विघात हो जाता है अथवा उस भोजन में बलवान वेष का उदय हो जाता है, अनः प्रनिधन्धक-वश उस भोजन में क्षुधार्त मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती। सम्यग्दष्टि अधिरन पुरुष को मोह की प्रबलतारूप दोष के कारण निषिद्ध धर्म से प्राप्तव्य फल के प्रति अनिच्छा अथवा उस कम में बलवान् वेष की उत्पत्ति नहीं होतो अनः प्रतिवन्धक की उपस्थिति न होने से उन्म कर्म में उसकी प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं होती। सम्यग्दृष्टि पुरुष का निषिद्ध कर्म से मुख्य तभी होता है जब सम्यग्दर्शन के साथ हिंसादि अधिरति का त्याग होने पर उसके अधिरति स्वरूप प्रबल मोह की निवृत्ति हो जाती है।
कहा गया है कि-"मनुष्य में कपट की गोठ इतनी बढ़ता से बंधी है, उसका मोह १. ज्ञायते नित्यो जन्मजामाणमभर्व दुःखम् । 7 च विषयेषु विरज्यते ऽहो! सुषद्धः कफ्टग्रन्थिः ॥