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________________ शास्ववातासमुन्धप-स्तक र लो ५१-५२ मुहम्-न चैत्र मतसंष्ट्रातमात्र चैतन्यमिण्यते । भविशेषेण सर्वत्र तात् तदमावसंगतः ॥५१॥ न चैव स्थूलत्वं यथाऽणुसंघातमात्र तथा भूतसंघातमा चैतम्पमिष्यते चाबकि। 'तषेधों को दोषः । इति तटस्थावकायामाह आवेशेषेण संघातातिरिक्तविशेषानम्युपगमेन सर्वत्र श्रीवासहरीरवदन्पत्राऽपि, तद्वद्भूतसंघातवद तापसंगतेयतचैतन्यप्तभारप्रसाद ॥५१॥ रातः किम् ? इत्याह - मुखम् -- एवं सति घटादीनां व्यकसन्यभावतः । पुरुषान्न विशेषः स्यात्, स च प्रत्यक्षमाधितः ॥५२॥ पतिप्रकारण, 'व्यक्त पैतलामावता तसा सप्तम्पयंता । व्यक्तचैतन्यभाषे 'सति' इति योभनीयम् । पर्व सति' इत्यनेनोक्तार्थपरामर्श सर्वपदस्य घटादिरेवाऽर्य इति पौनकत्य स्यात् । घटादीनां पुरुषात् जीवच्छरोरात् , न विशेष: स्यात् । न पापमपीष्टः, इत्पाह--सत्र-घटादीनां पुरुषाऽविशेषच, 'प्रत्यक्षबाधिता' पदादीनामदेवनदेन प्रतीते ॥५२॥ स्वीकार करने पर विरोधी पार्षीक का पक्ष भूतचैतम्यवाय अनायास सिम हो जाता है"-स कथन को निरस्त करने के उद्देश्य से ही इस ५१ वी कारिका की रचना की गपी है जिस प्रकार स्थूलत्व अगुषों का संयातमात्र है, उसी प्रकार चैतन्य भी भूतों का संपातमात्र ही, बार्शको की यही मान्यता है। तटस्थ द्वारा इस मान्यता को मान की शङ्का का निरास कारिका के उत्तरार्ध द्वारा यह कह कर किया गया है कि पैतन्य यदि भूतसंघात से अतिरिक्त न होगा नो भूमो के संघात के समान बैतम्प का सहार भी सर्वत्र प्रसक्त रोगा, फलतः ओषित शरोर के समान घट आवि संघालों में भी म्यत तम्य के भस्तित्व की भापति होमी ॥११॥ [पादि में पुरुषलक्षश्यामान प्रत्यापित है] सर्षय यनतम्य के सभाय की भापन्ति होने से क्या हानि होगी। इस म का उत्तर ५२वीं कारिका द्वारा उपन्यस्त किया गया है । कारिका के उपाध्याकार करते है कि ' न्य तम्यभाषतः' शय में 'तसिन्द' प्रत्यय सप्तमीविभक्ति के अर्थ में प्रयुक्त है, भतः उसका तात्पर्य 'व्यक्ततन्यमावे' में है, 'सतिशम का माधय उसी के साथ है म कि 'पर्व' शब्द के साथ, क्योंकि 'सति' शब्द को 'पर्व' मा से अम्बित कर 'पर्ष सति का 'सर्वत्र व्यक्तबैतम्पसदमारे मर्च करने पर 'पठाशीमा व्यक्ततपशषत:' से इसकी पुनमक्ति होगी, क्योंकि पर आदि हो सर्वशाद का भी मर्थ होता है। फलतः कारिका का पाइ अर्थ निर्गलित होता है कि-जरूरीति से भूतों में व्यक बैतम्य की सत्ता मानने पर घट आदि में पुरुष के लक्षण्य का प्रमाण
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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