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शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १-प्लो० ३० सकता, चूंकि वह अभी तक निर्णाप्त नहीं है। निर्णीत धमयुक्त अन्यस्थामों का मग्नि, जो भयुक्त नये स्थान में स्थित नहीं है । असः विवश होकर यह मानना होगा कि इस स्मरण का विषय कोई विशेष अग्नि नहीं है, किन्तु सामान्य अग्नि है।
और सामान्य अग्नि काल्पनिक होने से असत् है, अतः यह अग्निस्मरण असविषयक होने से अग्निस्मरणरूप अग्नि की सम्भावना में प्रमाणभूत अध्यक्ष-निर्विकल्पकप्रत्यक्ष का समानविषयकवरूप संवाद नहीं है, क्योंकि अध्यक्ष का विषय स्वलक्षण-विशेषअरिज है जो परमार्थरूपमें सत् है, और स्मरण का विषय सामान्य अग्नि है जो कल्पित होने से असत् है, पतः प्रमाण का संवाद न होने से उस में प्रामाण्य का शान सम्भवित नहीं है।
(बौद्धदर्शन के अनुसार पदार्थ का स्वरूप) इस विषय को हृदयंगम करने के लिये बौरदर्शन की इस मान्यता को ध्यान में रखना आवश्यक है, कि मौजूमतानुसार पदार्थ के दो भेद होने हैं-एक विशेष और दूसरा सामान्य । (विशेष क्षणिक होता है, उसका किसी के साथ कोई ताल्लुक नहीं होता। न तो उसका कोई नाम होता है और न कोई जाति होती है। निजी स्वरूप के अतिरिक्त उसका कोइ लक्षण भी नहीं होता, इसीलिये उसे स्वलक्षण कहा जाता है। इस प्रकार का पदार्थ ही परमार्थ रूप में सत् होता है । यह शब्द या अनुमान से नहीं गृहीत होता, किन्तु एक मात्र अध्यक्ष-निर्विकल्पकप्रत्यक्ष से ही गृहीत होता है। (२) सामान्य वह पदार्थ होता है जिसमें अनेफव्यक्ति और अनेकक्षणों के सम्बन्ध को कल्पना होती है जिसे व्यवहारयोग्य करने के हेतु नाम और जाति की कल्पना की जाती है। यह पदार्थ सषिकल्पकप्रत्यक्ष से तथा शब्दज और अनुमानजन्य शान से गृहीत होता है। यही पदार्थ पूर्व में अनुभूत रहने पर कालान्तर में स्मरण द्वारा गृहीत होता है । संसार का संपूर्ण व्यवहार इस सामान्यात्मक पदार्थ पर ही निर्भर होता है । इस पदार्थ को कल्पना को सम्भव बना सकने के लिये ही विशेषपदार्थ की प्रामाणिकसत्ता स्वीकार की जाती है, क्योंकि जब तक कोई प्रामाणिक वस्तु न मानी जायगी तब तक जगत् के काल्पनिक रूप को किस आधार पर चित्रित किया जा सकेगा ? कहावत है कि-'सति कुड्ये वित्रम्-दीवार होने पर उस पर वित्र की रचना हो सकती हैं। यदि दीवार ही न होगी तो चित्र कहां बनेगा ? !
यदि यह कहा जाय कि-"सम्भावना में प्रमाणभूत अध्यक्ष का समानविषयकत्वरूप संवाद न होने पर भी उस प्रमा से उत्पन्न होने वाले सविकल्पकप्रत्यक्ष का समान विषयकरवरूप संवाद तो है ही, तो फिर उसी संवाद से सम्भावना में प्रामाण्य की भाभिमानिकबुद्धि हो जायगी" -तो यद्द ठीक नहीं है, कि उक्तसंचार प्रमाणभूत अध्यक्ष का संवाद न हो कर अप्रमाणभूतसविकल्पकप्रत्यक्ष का संवाद है । अतः उसमें प्रामाण्य का सहचार न होने से उसके द्वारा सम्भाषना में प्रामाण्य की अभिमानिक प्रतीति की उपपत्ति नहीं की जा सकती।
उक्तशंका के समाधान में चाक धादि की ओर से यह कहा जा सकता है-की "यह ठीक है कि अध्यक्षमूलक सविकल्पक में प्रामाण्य नहीं होता, अतः उसके समानविषयकरवरूपसंपाद में प्रामाण्य का सहवार न होने से उस संवाद से सम्भावना