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स्या० क० टीका वि०
तथापि दृष्टसाधर्म्येणानुमानाऽप्रामाण्यसाधनमनुमानप्रामाण्यानभ्युपगमे दुःसमाधान मिति चेत् ? सत्यम्, साधर्म्यदर्शनस्योद्रोधकविघया. साधारणधर्मदर्शनविधया वाऽगृहीताऽसंसर्गकार्थस्मृतिरूपा यामुत्कटकोटिक संशयरूपायां वा सम्भावनायामेवोपयोगात् । सम्भावनाया एव च बहुशो व्यवहारहेतुत्वात् । अत एव न परकीयसन्देहादिप्रतिसन्धाननिमित्तशब्दप्रयोगाद्यनुपपत्तिः ।
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में प्रामाण्य की अभिमानिक बुद्धि नहीं हो सकती. पर अध्यक्षमूलक अध्यक्ष तो अध्यक्षमूलक विषय को ही विषय करता है और इसीलिये सद्विषयक होने से प्रमाण भी होता हैं, अतः अध्यक्षमूलक अध्यक्षों में अध्यक्षभूलकविषय-विषयकत्वरूप अध्यक्ष का संवाद प्रामाण्य का सहचारी हो जाता है और वह संवाद सम्भावना में भी विद्यमान होता है, क्योंकि सम्भावना का विषयभूत सामान्यपदार्थ - अध्यक्षमूलक विशेषपदार्थ पर आश्रित होने से अध्यक्षमूलक होता है, इसलिए प्रमाणभूत अध्यक्ष के अध्यक्षभूलक विषयविषयकस्वरूप संवाद से सम्भावना में प्रामाण्य का अभिमान हो सकता है । फलतः यह कहने में कोई बाधा नहीं हो सकती की जब किसी स्थान में धूम को देखने पर वहाँ अग्नि होने की सम्भावना मनुष्य को होती है तब वह उस सम्भावना को ही प्रमाण मान कर अग्नि पाने की आशा से उस स्थान में जाने का प्रयत्न करता है।" ( दृष्ट से अनुमानाप्रामाण्य का साधन दुष्कर नहीं है )
प्रश्न हो सकता है - "यदि अनुभव को प्रमाण न माना जायगा तो 'अनुमान प्रमाण नहीं है' इस बात का भी साधन कैसे होगा ?" यदि यह कहा जाय कि 'जो हेतु साध्य का व्यभिचारी है उस हेतुरूप अनुमान में अप्रामाण्य - अर्थात् सर्वसम्मत है, मतः उसके साधर्म्य से अनुमानमात्र में अप्रामाण्य का साधन किया जा सकता है ' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'अनुमान मात्र अप्रमाण है चूँकि वह उस अनुमानविशेष का-जिसे सभी लोगोंने अप्रमाण माना है-सधर्मा है, जो अप्रमाण का धर्मा है वह प्रमाण नहीं हो सकता' यह भी तो एकप्रकार का अनुमान ही है, तो फिर जिस मत अनुमानमात्र ही प्रमाण है उस महमें यह विशेष अनुमान भी अनुमान के अप्रामाण्य में प्रमाण कैसे हो सकेगा" ? - इस प्रश्न का उत्तर यह है कि दृष्टसाधर्म्य से अनुमान मात्र को अप्रमाण कहने का अर्थ यह नहीं है कि दृष्टसाधर्म्य से अनुमान मात्र में अप्रामाण्य का अनुमान किया जा सकता है; किन्तु उसका अर्थ यह है कि अप्रमाणत्वेन र अनुमान विशेष के साधर्म्य - ज्ञान से अनुमानमात्र में अप्रामाण्य की सम्भावना को जा सकती है । कहने का आशय यह है कि सम्भावना यदि धर्मी के साथ जिसका असम्बन्ध ज्ञात नहीं है वैसे अगृहीतासंसर्ग अर्थ की स्मृतिरूप होगी तो साधर्म्य दर्शन उद्बोधक रूप में उसका कारण होगा । और यदि सम्भावना उत्कटकोटिकसन्देहरूप होगी तो साधदर्शन साधारणदर्शन रूप मैं उसका कारण होगा। इस प्रकार उभयथैव साधर्म्यदर्शन से अनुमानप्रमाण का उदय नहीं होता किन्तु स्मृतिरूप या संशयरूपसम्भोधना का ही उदय होता है । अनुमानमात्र में अप्रामाण्य की सम्भावना होने से भी अनुमान के प्रामाण्य का विघटन हो जाता है । चावकि आदि को यहो इष्ट भी हैं, अतः अनुमान में अप्रामाण्य को सिद्ध करने