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________________ शा० वा समुच्य (स्या०) परे तु विघ्नश्वंस तत्प्रागभावपरिपालन-समाप्तिप्रचयगमन-शिष्टाचारपरिपालनानां सर्वेषामेवाऽविनिगमाद् मङ्गलफलत्वम्, तत्तत्कामनया शिष्टाचारेण तत्तत्फलकत्वोन्नय नात्, "अनुमानरूपमरमानात् नमागनं प्रमाण म्यात" (नैमि०१.३.१५) इतिन्यायेन पंथाचारमेव श्रुतिकल्पनात् । ___ अन्य लोगों का कथन यह है कि विनवस, विघ्न के प्रागभाव का परिपालन, समाप्ति पर्यन्त प्रन्थ का निर्माण-प्रन्थ की समाप्ति और शिष्टाचार का परिपालन यह सभी माल के फल है, क्योंकि इनमें आमुक ही मङ्गल का फल है अमुक नहीं है, इस बात में कोई "विनिगमक युक्ति नहीं है। यदि यह प्रश्न हो कि उक्त सभी को मङ्गल का फल मा नने में क्या युक्ति है ? तो इसका उत्तर यह है कि उक्त सभी फलों की कामना से म. अल करने का शिष्टाचार ही उन सभी को मङ्गल का फल सिजू करने की युक्ति है। कबने का आशय यह है कि शिष्टजन विघ्नध्वंस आदि सभी फलों की कामना से मङ्गल का अनुष्ठान करते है, अतः यह अनुमान कर लेना सहज है कि मङ्गल यह विघ्नध्वंस आदि सभी फलों का जनक है, क्योंकि उन सभी फलों की कामना से शिष्टमनों द्वारा यह अनुठित होता है। यदि यह कहा जाय कि शिघ्रजनों द्वारा उन सभी फलों के लिये माल का अनुष्ठान मानने पर "तत्तरफलकामः मङ्गलमाचरेत्-तसत् फल की कामना से माल का मनुष्ठान करना चाहिये' इस प्रकार के अतिवचन की कल्पना करनी होगी, और यह का स्पना उचित न्याय का समर्थन न पाने के कारण सम्भव नहीं है, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'अनुमान का विषय व्यवस्थित होता है अतः व्यवस्थित विषय से युक्त ही श्रुतिरूप प्रमाण का अनुमान करना उचित है' इस 'जैमिनीय न्याय के अनुसार शिप्रसमाज में प्र. चलित आधार के अनुसार ही श्रुति की कल्पना मान्य होने से तत्तत् फल की कामना से मगल का अनुष्ठान करना चाहिये' इस आशय के श्रुति की कल्पना सर्वथा सम्भवित है। सकेगा? व प्रवृत्ति में इष्ट साधनता का ज्ञान कारण होने से मंगल में इष्ट विनध्वंस विशेष की साधनता के ज्ञान विना महल में प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी ? इसलिए यही मानना उचित है कि घिनश्वस सामान्य के प्रति बाह्य नत्यादि मंगलसे अभिव्यक्त विशुद्धिरूप भावविशेष ही कारण है । यह ज्ञान रहने पर संभवित विनध्वंस का अर्थी का भावविशेष एवं उसके अभिव्यजक मंगल में प्रवृत्त होना युक्तियुक्त है । निकाचित कर्म तो अल्प होने से निकाचित विनकर्मके स्थल में व्यभिचार का ज्ञान मंगल प्रवृत्ति में बाधक नहीं होता है। दिखाई पड़ता है कि निकाचित कर्माधीन बलपान व्याधि स्थल में औषध का व्यभिचार ज्ञात रहने पर भी ऐसे कर्म अल्प होने के कारण वह व्यभि चार नगण्य मान कर न्याधिनाशार्थ औषध कारणता का ज्ञान प्रन्ति उपयोगी होता है व लोक औषधोपचार में प्रवृत्ति करते हैं। १ विनिगमक-दो पक्षों के उपस्थित होने पर उनमें से किसी एक पश्च का ही समर्थन करने वाली युक्ति को विनिगमक या विनिगमना कहा जाता है। २. 'अनुमानज्यवस्थानात् तत्मयुक्त प्रमाण स्यात्' यह पूर्वमीमांसा–जौमिनिसून के अध्याय १, पाद ३, होल्धकाधिकरण का १५ वां सूत्र है, इसका अर्थ इस प्रकार है-अनुमान-श्रुति के अनुमापक स्मृति और शिष्टाचार के विषय व्यवस्थित होते हैं, अतः उनसे व्यवस्थित पुरुषों से सम्बन्धित ही श्रुतिरुप प्रमणा
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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