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स्या का दीका व हिं घि 'नति आदि से अभिव्यङ्गय भावविशेष' | यह भावविशेष जो उपर्युक्त विशुद्धि स्वरूप है यह विशुद्धि स्वाध्याय में भी आती है, एवं प्रायश्चित में भी अतः विशुद्धिरूप भावविशेषात्मक मङ्गल में जो मालप यानी विद्युद्धित्व है वह भावनावश्चित -भावस्थाध्याय-भावनमस्कार सत्र में अनुगत है। इस रूप से विशुद्धिरूप मङ्गल का अनिकाचित विनों के नाश के साथ अन्यभिचरित कार्य कारणभाव होता है।
१. निकाचित-इसका अर्थ है संक्रमण अपवर्तनादि करणों के अयोग्य, यानी विषाकोदय से अपश्य भोल्य । अवश्यभोक्तव्य कर्म का नाश भोग से ही सम्पादित होता है, अन्य साधनों से नहीं होता, दृष्टग्य 'पंचसंग्रह निधनि-निकामना गाथा १, गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ४४०
२. अपवर्तन-कर्म पौद्गलिक है, इस पर कई करण यानी प्रक्रिया लगती है, जैसे कि, बन्धन-संक्रमण-उर्तन-अपवर्तन-उसरणा-उपशमन, नित्ति, निका बना । इनमें निकाचना प्राप्त कर्म को पूर्व के कोई संममय, अपवर्तन आदि करण नहीं लगते । वह कर्म तो अब सकल करण के लिए अयोग्य बन गया । करणों में जनतन अपवर्तन ये कम की कालभूति एवं रस में ऋ द्धि -हास स्वरूप हैं | (द्रष्टव्य-पंचसंग्रह 'उद्वर्तना' अपवर्तना प्रकरण गा०९-१०) चित्त के शुभाशुम भाव से यह होता है। निकाचित कर्म के स्थिति-रस में अपवर्तना न हो सकने से उसे अपवर्तनीय कहा गया । इसीलिए भावविशेष स्वरूप मंगल से अनाश्य अविकृत रहता हुआ यह मान भोग से ही नष्ट होता है ।
३. शब्दादिस्वरूप नमस्कार—यह पहले कहा जा चुका है कि नमस्कर्ता में नमस्कार्य की अपेक्षा अपकार्पण या नमस्कार्य में नमस्कर्ता की अपेक्षा उत्कर्ष का बोध नमस्कर्ता के जिस व्यापार से होता है उसे नमस्कार कहा जाता है। नमः आदि शब्दों के प्रयोग से, शरीर के उत्तमांग के अवनमन से, दोनों हाथों के अलिबन्ध आदि से उक्त बोध होने के कारण नमस्कार शब्दादिरूप होता है । किन्तु इसमें स्वाभ्यायादिरूप माल अन्तभूत नहीं हो सकेगा | इसलिए नमस्कार को द्रव्य-भावसकोचरूप माना गया है।
४. अपने अन्यवलित० इसका आशय यह है कि नमस्कार, प्रार्थवा, स्वाध्याय आदि जितने भी मङ्गल हैं, उनमें मङ्गलव आदि कोई अनुगत धर्म नहीं है, क्योंकि मङ्गलल्व को विघ्ननाशकताके अपच्छेदक जाति के रूपमें बदि स्वीकार किया जायगा तो शब्दत्य आदि के साथ मांकर्य हो जायगा, जैसे शब्दख है 'कुमकुरो कुकृति-कुत्ता कता है' इस मङ्गलानात्मक शब्दमें, एवं मनसत्य है शब्दानात्मक 'करशिरसंयोग' आदि में, शब्दत्व और मनालस्त्र दानी हैं 'नमः' आदि शब्दमें, अतः सांकर्य होने से मङ्गलस्य की जाति नहीं माना जा सकता । जाति से आंतरिक्त किसी अन्य रूपमें उसे अनगत सिद्ध करने की कोई युक्ति नहीं है, अतः विभिन्न प्रकार के मंगलों को किमी अनुगत रूप से विनध्वंसका कारण मानना सम्भव न होने से विभिन्न मङ्गलों को विभिन्न रूपों से ही विध्वंस का कारण मानना होगा,किन्तु वह सम्भव नहीं है, क्योंकि एक प्रकार के मंगल से उत्पन्न होने वाले त्रिमध्वस के प्रति दूसरे प्रकार के मङ्गल में न्यभिवार हो जायगा, इस लिये कह सकते हैं कि महर में विध्वंस की कारणताका समर्थन करने का एक मात्र यही मार्ग है कि तत्तत् मंगल को सत्ता मंगल के अव्यवहिन उसर क्षग में होने वाले विनम्वंस काही कारण माना जाब. क्योंकि इस प्रकार के कार्य कारणभाव में व्यभिचार होने की कोई सम्भावना नहीं रहती। किन्तु ऐसे कार्यकारणभाव सनद मंगल तत्तद विध्वंस का हाने से सामान्यरूप से 'मंगल विनास का कारण,' यह न जानने पर विनवसार्थी मंगन में कैसे प्रवर्तमान होगा ?
__ अगर कहा जाए कि 'अपने विध्नथ्वसविशेष मंगलन्निशेष का कार्यकारणभाव जान कर मंगल में प्रवृत्ति कर सके न ?' तो यह कहना भी ठोक नहीं, क्योकि बिनविशेष व उमका वंस अतीन्द्रिय है और यह पहले उपस्थित होने का अनुमानगम्य भी नहीं, तो इस त्रिनवंचिशेष व मंगलविशेष का कार्यकारणभाव कैसे धान
द्या. बा.४