SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - -. .. . _स्या का टीका पवि. वि. मानवनिर्विकल्पमन्यज्ञानक्षणे कपरसायस्याऽभावेऽपि पूर्व तत्सम्यान तदा तत्प्रत्यक्ष ततो विशेपणज्ञानादात्मनि ज्ञानविशिष्टधी, विशेषणं च न विशिष्टप्रत्ययहेत,तचा विनाऽपि तबुदेः प्रत्यभिन्नादनादिति वाच्यम, प्रत्यक्षे विषयस्य यसमयत्तित्वेनैव हेतुत्वात् , अन्यथा विनश्यवस्थघटनक्षुमत्रिकर्षाद घटनाशक्षणे घट प्रत्यक्षप्रसागत, मानस्मानीतत्वेन 'मानामि' इति वर्तमानत्यमानानुपपत्तेव । नत्र वर्तमानत्वेन स्थूल उपाधिभासते न तु क्षणः तस्यातीन्द्रियत्वादिनि वाश्यम्, संसर्गशवादितः क्षणस्यापि मुज्ञानत्यात् । [परप्रकाशमत में ज्ञान प्रत्यशानुपपत्ति, बाम को परप्रकाश्य मानने में कई अनुपपलिया है, जैसे ज्ञान को यदि परतः प्रकाश माना जायगा तो उसका प्रत्यक्ष न हो सकेगा, क्योंकि ज्ञाम को परप्रकाश्य मानने वाले लोगों के मतानुसार ज्ञान पहले क्षण में प ता है, दम क्षण मापक नir कल्पक पानसप्रत्यक्ष होता है, और तीसरे क्षगर में मानवधिशिष्ठज्ञान का मामलातत्यक्ष होना है. मिसे व्यवसाय ज्ञान के गधातदान म अनुपयसाय कहा जाताई।कन्तु इस तीसरे क्षण में उन्हीं के मतानुसमा परसाप-ज्ञान नष्ट हो जाता है, क्योंकि उनका यह भन है कि नान्मा प्रोर आकाश के प्रत्यक्षयोग्य विशेषणो का जैले आत्मा के झामादि गुणों का और आकाश के शम्दगुण का-उनके अनस्तर बोने वाले गुण से नारा हो जाता है। इस मत के अनुसार कपघलाय के अनन्तर उम्पन्न होने वाले ग्रामस्य के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से अगले क्षण में व्यवसाय का नाशा ध्रय, मो व्यवसाय जय तीसरे क्षण रडता ही नहीं तो उपक्षण में उसका प्रत्यक्ष कैसे हो सकेगा ? व्यवसाय के उत्पति श्रण में और ध्यवसाय के दूसरे प्रण में भी उनका प्रथम नहीं हो सकता । व्यवसाय के उत्तिक्षण में ती म लिये नहीं हो सकता कि उसके पूर्व व्यवसाय के साथ मन का सन्निकर्ष नहीं है और दूसरे माग रस लिये नहीं हो सकता, कि उसके पूर्व ज्ञान वरूप विशेषण का सामनाही. फनतः शान के परप्रकाण्यतापक्ष में इसका प्रत्यक्ष गनुपपन्न है। याद कहे कि-"ज्ञानविकरूपक के साथ अनन्तरक्षण में व्यवसाय का भभाय होने पर भी उस क्षण उसका प्रत्यक्ष हो सकता है क्योकि उसके पूर्षसम्म में वह विद्यमान है। और अब इस प्रकार ज्ञान का प्रत्यक्ष हो जायगा तब शानरूप विशेषण के उस प्रत्यक्षारमकमान से धानविशिष्ट आन्मा का भी मानसप्रत्यक्ष हो जायगा, पोंकि पिशिष्टतान में विशेषण ज्ञान कारण होता है, विशेषण स्वयं नहीं कारण होता, अन्यथा सत्ता के अभाव में तसा के ज्ञान से तसविशिष्ट घट को 'सो घटा' पेली प्रात्यमिः शाम होती । तो अब यितिर ज्ञान के लिये विशेषण का होना आवश्यकतहों सके ज्ञान में ही विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न हो सकता है, ना मानविशिष्ट आत्मा के मामलप्रत्यशकाल में भी उसके अन्नघदिसपूर्व में ज्ञान के न रहने पा. भो उसके होने में कोरवाया नहीं हो सकती'. तो यह नहीं थे, क्योंकि प्रत्यक्ष के पात प्रत्यक्षसमामकालविचमान विषयही कारण होता , अन्यथा यदि प्रत्यक्षकाल में न बहमे पर भी प्रत्यक्षपूर्वकाही पृसिमाध सोने से 'वषय प्रत्यक्ष का कारण होगा नो विनश्वयम्श्रपट के साथ बाचसंयोग होने पर अर्थात् घटनाश के अरपति पूर्थक्षण में घर के साथ पशुसंयोग होने पर घटनाशक्षण में भी घर के बानुषपस्यक्ष की पापप्ति होगा ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy