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________________ २५८ शास्त्रातांसमुख्य-सायकलो ८४. नन्वेवं घटानज्ञानानन्ताफारस्वं स्यादिति चेत ? न, घटज्ञानज्ञानादिविषयताया अपि वस्तुको घटानविषयताऽननिरेफान, अभिलापमेदस्य विवक्षाधीनत्वात् । सत्र चाश्रयत्वरूपं कर्तृत्व, विषयत्यरूगं , विशेषाश मिपाल पायवाद भासत, करणाशे स्वयोग्यस्थाद न साक्षाचमिति किमनुपपन्नम् । परप्रकाशे च ज्ञानस्य प्रत्यक्षानुपर्शतः, अनुव्यवसापक्षणे व्यवसायाभायात् । न च है। यदि कोई कि-'मर्थनातीधाम और पानझाम का अनुभव कालमेर से होता है, तर दोनों के पेश्य की सिजि पतनी सरलता से सम्भव नहीं है तो यह टंकना है, क्योंकि कालमेव में सोगंद से अतिरिक्त कोई युक्ति नहीं है, और सौगद कोई प्रमाण नही है। [अनन्ता मारता मापत्ति का परिहार] प्रश्न होता है कि-"पदि प्राहाज्ञान और प्राकमान में मेम् नही माना जायगा तो घटज्ञान में घटज्ञानज्ञान, तज्ज्ञान,तज्ज्ञामझाम आदि अनन्त मामाकारता की प्रसति होगी, और उम अनन्त शाकारों के दुय होने से बमान स्वयं तुझेय हो जायगा"इसका उत्सर यह है कि घटना में दो दी विषयतायें -एक घविषयता और दूसरी घटज्ञानविषयता, घदशामज्ञानादिविषयनारूप को अन्य विषयतायें प्रसक्त होती है घटज्ञानविषयता से अतिरिक्त नहीं है, क्योंकि परसामधानाधि घोषषयक होमे से घटसाप ही है। इस उत्तर पर यह शंका हो सकती है कि "यदिघन मानथिपयता मोर मामलामा विविधयतायें अभिन्न है, नथ "Pट मानामि "घटज्ञान जानामि" अन विभिन्न शायों से उनका अभिलाप क्यों होता है ? तो इसका समाधान यह है कि अभिलपमेव पका के विवक्षामेव पर निर्भर करता है, जैसे एक ही घट का कोई घटशब्द है, कोई कुम्भशाद से और कोई कलशशब्द से अभिलाग करता है। किता को और क्रिया का ज्ञान] उत सुति से ज्ञान में स्थविषयकाय सिम होने पर उसमें कां कर्म और निया के भामकी सम्भाव्यता भी समान में या जाती है, क्योकि साल में शान की फा. शाम केही कर्म और ज्ञानात्मक दो क्रिया का भान होगा, उसमें कोई कठिनाई नहीं हैं. क्योंकि शाम को कस्य सानभनकक्रियाकतन्वरूप या ज्ञानातुकलकतिसमवामित्यरूपन होकर ज्ञानाश्रयत्वरूप है, ओर मामाश्रयाय प्रत्यक्षयोग्य है। इसी प्रकार ज्ञानकर्मत्य मी परसमवेतक्रियाजन्यफलशालिन्यरूप या करणयापारविषयत्वरूप न होकर मानधिययरषरूप है, अतः बाद भी अत्यनयोग्य है। धानातक्रियान्व भी धावत्यरूप या ति साम्यवरूप न होकर चिशेषणत्यरूप है, क्योंकि ज्ञान मामा का विशेषण होता है, मनः पर भी प्रत्यक्ष योग है। प्रत्यायोग्य दोने से प्रत्यक्षात्मक शाम में कर्मा कर्म मौर किया के धर्मरूप में उनका मान हो सकता है, 'मनुषा पश्यामि' इस व्यवहार के अनुरोध से परप्रत्यक्ष को प्रभु मंश में साक्षात्कारात्मक नहीं माना जा सपाना, क्योंकि वच स्वभावतःप्रत्यक्षायोग्य है। नास्पर्य यह है कि स्थप्रकाशमानवादी के मन में प्रत्यक्षात्मक पाविज्ञान में कर्ता, कर्म और किया का भान मानने में को अनुपपनि नही है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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