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श्या० क० ठोका० हिं०वि०
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तथावि जानामि' इति सार्वलोकिकं ज्ञानमेव पूर्णपरकल्पनामा कर्म - क्रियासिद स्वविपयत्वे प्रभाणम्, ज्ञानस्य' प्रदं जानामि इदं खानं जानामि' इत्युमाकारत्वात् । एतेन "स्वविपयत् सिद्धे गौमहिने शानगोचरवाया ग्राहक प्रत्यक्ष स्वप्रकाशसाय प्रमाणम् तेन च मानेन तस्य स्वविषयतासिद्धिः इत्यन्योम्याश्रयः " हयपस्तम्: झानविपयत्वेनानुभूयमानस्य छात्रवाद यानैक्यसिद्धी पत्रकाशवासिद्धेः कालभेदेनोमयानुभवस्य शपथप्रत्यायनीयत्यात् ।
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तथा परपक्ष के निराकरण में युक्ति पर युक्ति देते रहने के कारण प्रतिवादी को अप
प्रस्तुत करने तथा नैयायिक के पक्ष में दोषोज्ञायन करने का शीघ्र असर नहीं मीलता, किन्तु उसे उसकी प्रतीक्षा करनी पडती है, उसी प्रकार व्यायाकार भी शान के स्वसंवेदन के विषय में नेपायिक को घडी पाठ पढाने का दरिकर है। उनको धारणा है कि वे यथार्थ आगम द्वारा परिपोषित अपनी बुद्धि के बल पर अपनेपक्ष के समर्थन में करते हुये तैयार को भरना आशय प करने का अवसर पाने की प्रतीक्षा करने को विवश कर दंगे | उनकी यह धारणा उनके अगले नर्को से भी भाँति प्रमाणित हो जाती है ।
[जनस्वयकाश है - उरक्षारम्भ | 'ज्ञानामि यह एक समान है, उसके दो है, एक 'इ जानामि' और दूसरा 'इवं ज्ञान जानामि । इनमें गरले आकार से ज्ञान में नयभूत व विश्व का और दूसरे से नाम में ज्ञानविषयत्व का स्पशंकरण होता है अब इस शमशान को अर्थप्राकशान का परत मान कर उसमे यम् पूर्वज्ञान का मह माना जाएगा तो पूर्वापरीभूत दो शानों की कल्पना करने से गोरव होगा, अतः एक ही ज्ञान को कर्ता, कर्म और क्रिया का प्राइक मान कर उसी को मान के स्थथियार में प्रमाण मानना चाहिये ।
उक्त रीति से ज्ञान में स्वविषयकत्व की सिद्धि मानने पर यह शंका हो सकती है कि "इस ढंग से ज्ञान में स्वप्रकाशता का साधन करने पर अन्यान्याश्रय होगा, जैसे प्रत्य ज्ञान और ग्राहक ज्ञान ऐसे भिन्न हो ज्ञानों की कल्पना करने में गोरव का ज्ञान होने पर ही श्रमविषयस्थ का अक प्रत्यक्ष यह ज्ञान के स्वरूप स्वका शा में प्रमान होता है, और उक्त प्रमाण से ज्ञान में स्वविकास हो जाने पर श्री उगवानसहरूत प्रमाण की नित्ति होती है, अतः उस प्रमाण के निष्पन्न होने में शाम के स्थविषयत्वरूप स्वप्रकाशय की सिद्धि की अपेक्षा होने से और प्रकाशश्व को सिद्धि में उक प्रमाण की अपेक्षा होने से अन्याय र दोष है"उसका यह है कि मानव सान का अनुमय निर्विवाद है, उस अनु ज्ञानज्ञान से पूर्वज्ञान से भिन्न मानते में लाघव है यह भी स्पष्ट है, और ज्ञानमान जब पूर्वज्ञान से है सब उसी से ज्ञान में स्वविषयकत्वरूप प्रकाश भी सिद्ध
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