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________________ 48 शास्त्रवासिमुनय-स्तबक र लो०६४ मूलम् -- आत्मनाऽपग्रहोऽयत्र तबाजुभवसिदितः । तस्यैव तत्स्वभावत्वाम्न ज युक्त्या न युध्यते ॥४॥ आत्मनाऽऽत्माहोऽपि कर्न-कर्म-क्रियागोचरत्यापि, अत्र:-प्रकृताईप्रत्यये, सपाअनुभवसिद्धित स्वसविदितत्वानुभवसिद्धया, नस्यैव-आत्मन पर, तत्स्वभावत्वाद-कर्मस्वादिकिमी रितशक्तियोगित्यात्, न च 'युक्त्या तण, न युज्यते न साध्यते, अपि दुसाध्यत एवेत्यर्थः । यथा कथायां प्रविशन् परस्य नैयायिकः कार अति प्रभाम् । तथा पथार्थागमनदास्यामि नास्यापि शिर शिक्षाम् ॥ के स्वप्रकाधव को अनुमानान्तर से श्रेय मानना होगा । अतः स पक्ष में भी स्वप्रकाशप के मावि मनुसनमान ले ! हैन: कि-'जिस विषय के साम में स्वप्रकाशन अनुमेय है उस ज्ञान के स्वम काशश्वानुमान की परम्परा से विषयान्तर में मम का संचार हो जाने पर इस अनुमान परम्परा का निरोध हो जाने से अषस्था का परिवार हो जायगा'-तो इस पार अनघस्था का परिवार शो शान के हानाम्लरवेद्यसा पक्ष में भी सम्भव है । अतः उस पक्ष की उपेक्षा निज हो जायगो। इस प्रकार विचार करने से ज्ञान की स्वग्राहकता सिज न होने से महंप्रत्षय की प्रत्यक्षरूपता नहीं सिम हो सकती । श्रतः या प्रश्न प्राने स्थान पर ज्यों का ग्यों घमा हुमा है कि प्रत्यक्ष वाम का विषय न होने से प्रारमा में प्रत्यक्षपापपदेश कैसे हो सकता है" [पूर्वपक्ष समाप्त ] इस प्रश्न का उत्सर कारिका (८५) में दिया गया है. अनुभवचल से स्वसविदितत्व को शियि - उमरपक्षारम्भ अहंप्रत्यय में अर्थात् 'घटम जामामि' पावि प्रत्यय में स्य से स्व का न होना सिच, इसमें कर्ता, कर्म और क्रिया का भान होना नियिंचा है क्योंकि उसमें स्वसंषिक्तिस्य अनुभवसिद्ध है और वह सरिहये कि उक्त प्रतीति में भाग्मा का भानोसर्वमान्य और बात्मा में ती स्वाभाविक शक्ति है जिससे उसका स्वरूप कोष मादि से ग्रसित (मिश्रित) राता है। इस प्रकार जम श्रात्मा के स्वभाय में कच, विषयभूत मर्ग के स्वभाव में फाव और माल के स्वभाष में आत्मविशेषणत्य सम्मिविष्ट है, तब उन प्रत्यय में आत्मा अर्य और शान स्वरूप का भान होने पर फर्मा, कम और किया का भान होने में क्या वाचा हा सकती है? अप्रत्यय द्वारा कई कर्म और किया के अवगाहन का होगा युकिनिन नहीं है, या बात नहीं है. मषितु सर्वथा युक्ति अप्रत्यय के उक्त स्वरूप के विरुद्ध अपनी मान्यता पर गिराने पाले मेया यिक के बारे में व्याख्याकार । एक स्थनिर्मित पद्य द्वारा यह मभिप्राय व्यक्त किया है कि जैसे निवायिक कथा-शास्त्रीय विचार' में पावर होने पर दूसरे को अपनी पाव कहने के पक्ष की प्रतीक्षा के लिये पिया कर ऐसा है, अर्थात् अपने पास के समर्थन
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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