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स्या० का टीका प हि घि.
वैराग्यं च द्विविधं परमपरं च । तत्र यतमानसं ज्ञा-व्यतिरेकसंबा-एकेन्द्रियवशीकारसंक्षाभेदैरपरं चतुर्विधम् । तत्र किमिह सारं ? कि चाऽसारम् ? इति गुरुशास्त्रपारतव्येण ज्ञानोद्योगो नमानम् । विद्यामानचित्तदोषाणां मध्येऽभ्पस्थमानविवेकेनैतावन्तः पक्याः एतावन्तश्चावशिष्टा इति चिकित्सावद् विवेचन व्यतिरे कः । रष्टानुविकविषयप्रवृत्तेदुखमयत्वबोधेन बरिष्प्रवृत्तिमजनयन्त्या अपि तृष्णाया औत्सुक्यमात्रेण मनस्यवस्थानमे केन्द्रियम् । तृष्णाविरोधिनी चित्तवृत्तिनिप्रसादरूपा वशीकारः । तदिदं सूत्रितम्- "दृष्टानुविकविपवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्" (पा०१-१५) इति । तदन्तरसाधनं सम्प्रज्ञातस्थ समाधेः, असम्प्रज्ञातस्य तु बहिरङ्गम् । ____ अभ्यास का अर्थ है आत्मा में चित्त को स्थिर करने का यत्न । आत्मा का अर्थ है, 'शुद्ध दृष्टा' । चित्त को स्थिर करने का अर्थ है-'चिस को विषयोमुम्ल वृत्तियों से मुक्त कर उसे श्रात्मा में प्रशान्त रूप से प्रवाहित करना-आमा में उसकी स्थिति को अवि लत करना'। यान का अर्थ है 'मन का उत्साह-पारमा को छोड़ किसी अन्य विषय में वित्त को न जाने देने का सुडद संवाल्प' । यह यत्न ही बार बार दोहराने पर अभ्यास कहा जाता है।
अभ्यास के उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये उसे इढभूमि बनामा-विश्य सुख की वासना से विचलित न होने योग्य बनाना आवश्यक होता है, और यह होता है तब, जब किसी प्रकार का कष्ट अनुभव किये बिना, बीच में व्यवधान न करते हुये पूर्ण भद्धा के साथ दिर्घकाल तक उसके क्रम को भालु रखा जाय । यदि ऐसा नहीं किया जायगा तो लय, विक्षेप, कषाय और रसास्वाद इन चार विनों का परिहार न हो सकने से व्युत्थान के प्रयल संस्कार समाधि के संस्कारों को भङ्ग कर देगें, जिससे अभ्यास पढभूमि न हो सकेगा, फिर दुर्बल अभ्यास से विशिष्ट फल की सिद्धि कैसे हो सकेगी।
(वैराग्य के पर और अपर भेद) वैराग्य के दो मेन है पर और अपर । उनमें अपर वैराग्य के चार प्रकार हैयतमानसंशा, व्यतिरे संज्ञा, पकेन्द्रियसंज्ञा, और वशीकार संशा। संसार में क्या सार है और क्या असार है?' गुरु प शास्त्र के अनुसार इस बात का मान प्राप्त करने का उद्योग का नाम है 'यतमान' । वित्त में विद्यमान दोषों के मध्य पच्यमान दोषों को छोड़ शेष दोषों के सम्बन्ध में कुशल चिकित्सक के समान यह निश्चय करना चाहिये कि 'कितने दोष एक चुके है और कितने पकने को अपशिष्ट हैं।' दोषों का इस प्रकार विवेमन करने का नाम है 'व्यतिरेक' | सिद्धि के लौकिक और वैदिक उपायों को आयत्त करने का प्रयत्न दुःस्वपय है । इस शान के होने पर मनुष्य की सृष्णा यद्यपि वाह्य वि. षयों में उसे प्रवृस नहीं कर पाती. फिर भी मन में विषयों के प्रति उत्सुकता के रूप में बनी रहती है, इस प्रकार योगाभ्यासी के मन में उत्सुकता के रूप में तृष्णा के जी वित रहने का नाम है 'एकेन्द्रिय'। वित्त में निर्मलमान रूप वृत्ति का उदय होने पर तृष्णा