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________________ स्पा० क० डीका हिं.वि मृष्यम् - प्रत्यक्षस्यापि तत्याज्यं तसद्भावाऽविशेषतः । 1 प्रत्यश्चाऽऽमासमम्यभ्येषु व्यभिचारि न साधु तत् ॥ ८१ ॥ तर्हि रथस्यापि चक्षुरादेरपि तत्सद्भावाऽविशेषतः अमजनकत्वाऽविशेषात् तत् प्रमाणस्वं त्याज्यम् । अथ प्रत्यक्षामा द्विचन्द्रादिप्ररपक्षं म्यभिचारि विसंशदिव्यमदारमनस् अन्यत् सत्यादिप्रत्यभिन्नवत् साधु प्रमारूपं न । तथा च न अमाजनकत्वशण प्रामाण्यमभिमतं किन्तु प्रमाजनकत्वं तच घटादिप्रमाजननाद व मित्याशय इति चेत् 1 !!१॥ मूलम् - आहप्रत्ययपक्षेऽपि ननु सर्वमिदं समम् । २७५ अतस्तदसौ मुषः सम्यक् प्रत्यक्षमिष्यताम् ॥ ८२ ॥ 'नु' इत्याक्षेपे, इदं सर्व प्राक्प्रकटितमाकृतम् अहम्प्रत्ययपक्षेऽपि समम् असत्याप्रत्ययपरित्यागेन सत्यापत्ययमादाय प्रमाणत्वाविरोधात् दुष्टाऽदुष्टकारणजन्यत्वेन प्रत्ययवैविध्यात् । अतः प्रमाणवाद्यत्वाद् नालीकत्वमात्मनः, किन्तु पारमार्थिकत्वमिति [प्रत्यय सप्रमाण है ] पूर्व कारिका ८० में कहाये गये मन का कि-'भ्रम का जनक होने से प्रत्य के जनक उपयोग को प्रामाण्य न हो सकेगा इस कारिका में यह उत्तर दिया गया हैअम्मायक उपयोग को कचित् भ्रम का जनक होने से यदि अप्रमाण माना जायगा, तो वमादि प्रत्यक्षप्रमाण के भी प्रमाणत्व की हानि हो जायगी, क्योंकि अादि से भी काचित् भ्रम का जन्म होता ही है, किन्तु उन्हें अप्रमाण नहीं माना जाता मतः अप्रमाण का भारी होने से आमजन से अपस्थय के शम उपयोग में अप म्हणत्य का भाषादान नहीं हो सकता। यदि वह कहें कि "विबन्ध आदि को ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष प्रत्यक्षाभास है, भर्थव्यभिचारी होने से विसंवादिनी प्रवृति का जनक है। es सत्य घटादि का अवमान करने वाले यथार्थ प्रत्यक्ष से भिन्न है, अतः वह पमाण रूप नहीं है। कहने का अशाय यह है कि चक्षु आदि में यदि भ्रमाजनकस्वरूप प्रमामात्य सिद्ध करना होता तो कयाचित् भ्रम का जनक होने से उस में अमाज मकत्वरूप प्रामाण्य की हानि अवश्य होती, किन्तु उसमें उक्त प्रामाण्य की नहीं, अपितु प्रमाणन कररूपप्र माण्य की स्थापना करनी है अतः कदाचित् भ्रम का जनक होने पर भी काचित् प्रमा का भी जनक होने से उस में अभिमत प्रामाण्य की हानि नहीं हो सकती" - तो इस का भी उत्तर अनि कारिका (८९) से प्राप्त करना चाहिये ॥८॥ ( प्रत्यय के प्रामाण्य का समर्थन ] चक्षुवाद से अन्य जन्य सदस्य के विषय में जो कुछ कहा गया है पहल प्रत्यय के विषय में भी समान है, अशा जिस प्रकार असत्य घटप्रत्यय को छोड
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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