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________________ ..स्था का टीका पहि. वि० मूलम् तस्मादधर्मवत त्याग्यो धर्मोऽप्येवं मुमुक्षुभिः । धर्माधर्मक्षयाद मुक्तिर्मुनिभिर्वर्णिता यतः ।।१९।। तम्मात् संसारपरिभ्रमणजन्यबलवदुःखानुबन्धित्वात्, अधर्मवत् धर्मोऽपि त्याज्य: मुमुक्षुभिः मोक्षच्छादिः, तदितरेप संसारमुखाविरक्तत्वेन विवेकाभावात् । बलवद्दु:खानुबन्धित्वेन त्याज्यत्वमुक्ला इष्टसाधनीभूताऽभावप्रतियोगित्वेनाऽपि त्याज्यत्क्माहमुनिभिः परिणतप्रवचनैः धर्माऽधर्मयोरुभयोः क्षयाद मुक्तिर्यतो वर्णिता। अतोऽप्यधर्मवत् त्याज्यो धर्म इति भावः ॥१९॥ मूलम्-उच्यत एवमेवैतत् किन्तु धर्मो द्विघा मतः । संज्ञानयोग एवैकस्तथान्यः पुण्यलक्षणः ॥२०॥ 'उच्यते'- अत्र समाधान नियते- पूगौर र संसार तर मोक्षविरोधित्वं च, एवमेव-अविप्रतिपत्तिविषय एव । ननु कथमेकस्य मोक्षजनकत्वं तत्प्रतिपन्धकत्वं च, विरोधान १, अत आह--किन्तु धर्मो धर्मपदवाच्यः, द्विधा=द्विप्रकार उक्तः। एवं च धर्मपदमक्षादिपदवद् नानार्थकम् , तथा च मोक्षजनकप्रतिबन्धकयोर्विमेदाद् न विरोधः इत्यनुपदं ग्रन्धकृता स्पष्टाक्षरैरेव वक्ष्यते । द्वैविध्यमेव स्पष्टयति,-एको धर्मः, संज्ञानयोगः समीचीनमहत्मवचनानुसारि ज्ञान गुरुपारतन्त्र्यनिमित्त संवेदन, तेन सहितो 'योगः' शुभवीर्योल्लासः । एवकारः प्रसिद्धयर्थः । तथा अन्यो धर्मः, पुण्येन सातादिना कार्येण लक्ष्यत इति पुण्यलक्षणः ॥२०॥ १२ वीं कारिका में उक्त पूर्वपक्ष का उपसंहार करते हुये यह कहा गया है कि-अधर्म के समान धर्म भी संसार में प्राणी के परिभ्रमण का सम्पादक होने से बलवान् दुःख का उत्पादक होता है । अतः संसार सुख से विरक्त अविवेकी पुरुषों के लिये धर्म भले ग्राह्य हो, पर मुमुक्षु पुरुषों के लिये वह भी अधर्म के ही समान त्याज्य है। यह ध्यान देने की बात है कि धर्म बलवान् दुस्ख का अनक होने मात्र से ही त्याज्य नहीं होता किन्तु मोक्षरूप इष्ट के कारण भूत अभाव (धर्माधर्मक्षय) का प्रतियोगी होने से भी त्याज्य होता है; क्योंकि जिन मुभिजनों के जीवन में तीर्थंकरों के प्रवचन परिणत हो चुके हैं उन्होंने धर्म-अधर्म दोनों के भय से मुक्ति होने की बात कहो है, अतः अधर्म के समान ही धर्म भी त्याज्य होने से धर्म में विवेकी पुरुष की आस्था होने को उचित कहना ठीक नहीं है। (धर्म-द्वविध्य बताने द्वारा पूर्व आक्षेपों का समाधान) २० वी कारिका में धर्म के सम्बन्ध में किये गये पूर्वपक्ष का समाधान किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है धर्म को जो संसार का कारण और मोक्ष का विरोधी कहा गया है, यह ठीक ही है, उसमें किसी की कोई विमति नहीं है। प्रश्न होता है कि-धर्म को पहले मोक्ष का शा. वा. १.
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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