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________________ ७२ शास्त्रषार्त्ता समुच्चय पूर्वपक्षी प्रत्यवतिष्ठते आहेति मूलम् आइ तत्रापि नो युक्ता, यदि सम्यङ् निरूप्यते । धर्मस्यापि शुभो यस्मात् बन्ध एव फलं मतः ॥ १७॥३ तत्रापि धर्मेऽपि, नो युक्ताऽऽस्था, यदि 'सम्यङ् निरूप्यते सुक्ष्ममीक्ष्यते, यस्माद हेतोः, धर्मस्यापि शुभः सातादिहेतुः बन्ध एवाऽभिनवकर्मपुद्गलपरिग्रह एव फलं मतः= दृष्टः ॥१७॥ 9 ननु किमेतावता, इष्टसाधनत्वस्यानपायात् ! अत आह नचेति - मूलम् -- न चायसस्य बन्धस्य तथा हेममयस्य च । फले कश्चिद् विशेषोऽस्ति पारतन्त्र्याऽविशेषतः || १८ || न चाऽऽयसस्य - छोइनिगडादे, हेमयस्य च कनकशृंखलादेः बन्धस्य रुके कश्चिदनुष्ठत्वप्रतिकूळल्वकृतः बलवत्त्वाऽगलवश्वकृतो वा विशेषोऽस्ति, पारतन्त्र्यस्य स्वेच्छा निरोधदुःखस्याङविशेषतः उभयत्र विशेषाभावात् ॥ १८ ॥ उपसंहरन्नाह 'तस्मादि'ति को छोड़ कर संसार के किसी अन्य वस्तु में विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति उचित नहीं हैः किन्तु धर्म में कोई दोष न होने से उसमें विवेकी पुरुष की प्रवृत्ति का होना उचित ही है । - १६॥ ( धर्म भी त्याज्य है - पूर्वपक्ष ) 'ers तत्रापि - इस कारिका में पूर्व पक्षी द्वारा पूर्वकारिका में कही गयी बात का बण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है - 'संसार की अन्य वस्तु में विवेकी पुरुषों की आस्था उचित नहीं है, किन्तु धर्म में आस्था उचित है' - इस कथन पर 'आई' इस अव्यय शब्द द्वारा आश्चर्य प्रकट करते हुये पूर्वपक्षी का कहना है कि यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाय तो धर्म में भी विवेकी पुरुष की आस्था उचित नहीं है क्योंकि धर्म का फल शुभ बन्ध ही माना गया है । 'शुभ' का अर्थ है सुखशातादि का जनक, और 'बन्ध' का अर्थ है नये कर्मपुलों का ग्रहण ॥११७॥ 'न चास्य' इस कारिका में 'शुभबन्ध का जनक होने पर भी इष्ट का साधक होने से धर्म की उपादेयता अक्षुण्ण है, इस कथन की समीक्षा की गयी है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है अंजीर आहे लोहे की हो, चाहे सुवर्ण की हो, दोनों के फल में कोई असर नहीं होता । यह नहीं कहा जा सकता कि सोने की जंजीर का बन्धन प्रिय या दुर्बल होता है, और लोहे की जंजीर का बन्धन अप्रिय या प्रबल होता है, क्योंकि दोनों के द्वारा जो परतन्त्रता होती है, इच्छा का निरोध होने से जो दुःख होता है, उस में कोई मेद नहीं होता ||१८|
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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