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________________ स्था० क० ढीका व हिं.वि. हेतोः अत्र संसारे, वद इति शिष्य संबोधनं व्यामोहादिदोषनिरासेनावधानार्थम् कि क्वचित् प्रियसंयोगादौ विवेकिनामिष्टसाधनत्वाद्यंशेऽभ्रान्तानाम् श्रास्था प्रष्टस्यादिरूपा, तत्प्रवर्तकवचनप्रामाण्यप्रतिपत्तिरूपा वा 'युक्ता' ? न युक्तेति काक्वथैः ॥ १५ ॥ अपवादमाह - 'मुक्त्वे' ति मूलम् - मुक्त्वा धर्मं जगद्वन्थमकलङ्कं सनातनम् । परार्थसाधकं धीरैः सेवितं शीलशालिभिः || १६ | जगतां वन्यमिष्टसाधनत्वेन स्पृहणीयम् नैष्ठिकाऽऽमुष्मिक दोषाननुबन्धिनं, सनातनं प्रवाहापेक्षयाऽनादिनिधनम् । अनेनाssधुनिकत्वशङ्कानिरासः । परः प्रकृष्टो= मोक्षः, अर्थोधनम् उपलक्षणात् कामोऽपि गृह्यते, तत्सामकं तन्निबन्धनम् अनेन चतुर्वर्गाभ्यर्हितत्वमुक्तम् । तथा शीलशालिभिः काष्ठाप्राप्तब्रह्मचर्ये स्तीर्थकरादिभिः, सेवितमाचीर्णम् । अनेन सुसम्प्रदायायातत्वमुक्तम् । एतादृशधर्म मुक्तत्वाऽन्यत्रास्था नोचिता, धर्मे तुचितैव दोषाभावादिति ॥१६॥ P उत्तरीति से यह सिद्ध है कि प्रियसंयोग आदि संसार की सारो वस्तु स्वभा यतः असुन्दर है, कोई भी वस्तु बलवान् अनिष्टका अनुत्पादक होते हुये इष्ट का साधक नहीं है । संसार की वस्तु दृष्टसाधक होती हुई भी बलवान अनिष्ट की उत्पादक डोसी है । अतः गुरु शिष्य के व्यामोह आदि दोष का निरास कर उसे सावधान करते हुये काकु ( वक्र कथन) द्वारा उसको यह उपदेश देता है कि जिन्हें इष्टसाधनता आदि के विषय में भ्रम नहीं होता, ऐसे विवेकी पुरुषों की संसार के प्रियसंयोग आदि किसी भी वस्तु में प्रवृत्ति रूप आस्था अथवा प्रवृत्तिसम्पादक वचन में प्रामाण्य की प्रतिपत्तिरूप आस्था का होना उचित नहीं है ॥१५॥ 'मुक्त्वा धर्म'....इस कारिका में, संसार की किसी भी वस्तु में विवेकी पुरुष की आस्था का होना अनुचित है' इस बात का अपवाद बनाया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है- इष्ट का साधक होने के कारण धर्म जगत् के सभी मनुष्यों के लिये स्पृहणं य है। उसमें पेडिक अथवा आमुष्मिक किसी प्रकार का कोई कलङ्क अर्थात् दोषजनकता नहीं है। उसके प्रवादको उत्पत्ति तथा विनाश न होने से प्रवाह को दृष्टि से वह शाश्वत है, अतः 'धर्म तो आधुनिक है' ऐसी उसमें आधुनिक होने को शङ्का का कोई अवसर नहीं है । वह परार्थसाधक है, 'परार्थ' में 'पर' शब्द का अर्थ है प्रकृष्ट अर्थात् मोक्ष, 'मर्थ' शब्द का अर्थ है धन, वह काम का उपलक्षण है । अतः परार्थ' शब्द का अर्थ है मोक्ष-धन और काम | धर्म इन तीनों का साधक होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों वर्गों में सर्व श्रेष्ठ है। पूर्ण ब्रह्मचर्यरूप शील से सम्पन्न तीर्थ कर आदि धीर पुरुष द्वारा सेवित होने से वह धर्म प्रशस्त सम्प्रदाय द्वारा शिष्ट पुरुषों की सम्मान्य परम्परा द्वारा प्राप्त है । अतः वह संसार की समस्त वस्तुओं में अपवाद है, इसलिये उस धर्म
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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