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________________ १५५ शवासिमुपय-तप को०४९ परिणामोत्पनेः पटकाले तन्तुमतीतिर्न पाद नष्टस्यातीतपदग्रहणादिति चेन ! न, दिवियो हि विनाशा,(१ प्रायोगिक (२)वैखसिकश्च । आधः समुदयजनित एम्ब, भन्स्यस्तु द्विविधा समुदयजनितः, ऐकत्विकष । छन्स्यो धर्मादीनां गत्याधारत्याविपर्यायोस्पादस्य वदनधारस्वध्वंसकत्वेनान्तता क्षणध्यसे तद्विशिष्टध्वसनियमाञ्चोपेयः । समुदयनित व विभेद:-समुदाविभागलक्षणः अर्थान्तरगमनलक्षणच । तत्राधस्य प्रतियोगिप्रतिपत्ति पिरोधित्वेऽपि अन्त्यस्याऽतथान्यादानुपपत्तिविरहादिति दक् ॥१९॥ मानी जाती है, अतः तम्तरिणाम के माल के बाद ही पट परिणाम की उत्पत्ति होने से पर के समय तन्तु की उपलब्धि नहीं होनी चाहिये, कयोंकि मतीस के समान मात्र वस्तु का भी ग्रहण हान) नहीं होता'-इल शंका का समाधान यह है कि-पटपरिणाम की उत्पत्ति के लिये तातुपरिणाम काको नाश अपेक्षित होता है. वह तम्तु के अस्तित्व का विरोधी नहीं होता । पतः पद के समय तन्तु का अस्तिथ सुरक्षित रहने से उसकी उपखन्धि में कोई बाधा नहीं होती। ___माशय यह है कि नाश के दो भेद है--पक 'प्रायोगिक' और दूसा चैनसिक' । इन में 'प्रायोगिक' अर्थात् पुरापश्यनम्म्य नाश लमुदयजन्य हो होता है। समुवातम्य का अर्थ है मूर्तबध्यावयविभागजम्य । 'यमिक' को प्रकार का होता है समुश्यजन्य पचं ऐकरियक । ऐधिक नाश का अर्थ है मूर्स अमून अपघद्रव्य के परस्पर सम्बन्ध के परिधन से होने वाला पर्ष स्थिति का नाश | यह घमस्तिकाय-अधर्मास्तिकाय व भाकाश के लम्बन्ध से षस्तु में नियमन गान स्थिति भयमावना पायों से होने थाले पूर्व के विपरीतपर्याय के माशस्वरूप होता| उवावरणार्थ, धर्मास्तिकाय बस्तु को गति में सहायक होने से गति का शाधार-गति का सरकारी कारण ना जाना है। जिल क्षण धर्मास्तिकाम का सहयोग होने पर भी किसी विशेष यस्तु में गति को उत्पत्ति ही नहीं हुई, उस क्षण में धर्मास्तिकाय में उग यम्मु की गति को अनाधारना रहती है, यही उस क्षण में उसका पर्याय है। किन्तु जब धमांत्रिकाय के सहयोगाधीन उस वस्तु में गति की उत्पति होती है तब धमास्तिकाय में उस वस्तु की गन्याधारनारूप पर्याय का उदय होता है। स मस्याधारता र्याप का उदय होने से गप्पानाधारताला पर्याय का नाश होता है। पस्तु में गति नहों ही हुई तब भी अन्ततोगत्वा प्रथमश्रण का दुसरो अग में नाश-फलतः सक्षगसम्बन्ध का नाश होने से तन्त्रणसम्बन्धविशिष धर्म का भी नाश होना है। धर्म का यह माश उसका रेकरिषक माश। समुदयमय के दो मे - समुदायमागरूप और पर्यावरगमनका (1) समु. उपविभाग का अर्थ है पस्तु के उन अशा का अलगाय जिनके संयोग से पस्तु उत्पन्न है, जैसे जिन अशुओं के संयोग से नन्तु उत्पन्न है इस भयुओं का मलगा । यातमरण समुदयविभागकर नाश है। (२) अन्तरगमन का ई. पूर्यस्वरूप के बने दुप किसी नये स्वरूप का प्रवण, जसे मातु जिस मूलद्रव्य की पक भयस्था है वह मूल पम्प आगे जा कर सन्तु के रहते हुए पट रूप को ग्रहण कर लेता है। जन्तु के मूल इण्य का यह परकपत्रहण तन्तु का भर्यास्तरगमनरूप नाश कहा जाता है। इनमें समु.
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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