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शास्त्रयातासमुच्चय-स्तबक
टोक २९ ।
उपसंहरन्नाछ - मुहम्-तस्माद् दुष्टाशयकर विलासरव मितिसम ।
पापश्रुतं सदा वोर्षिय नास्तिकदर्शनम् ॥११२॥ तस्मान:-सर्वथैवाऽसत्यवान, दुष्टापायक परलोकायभावमाधमेन पियेरामाप्रपर्यवसायिनित्ताभ्यवसापनिबन्धनम्, नया विम्सच्चैः अचिन्तिनामुष्मिकारायः ऐहिकमुख वाऽस्यन्ते यूद्ध विधिलित-मवेनट्या प्रफटोकृतम्, अत एव पापचतम् श्रूयमाणमप्यनुपरुगतः पापनिबन्धनम् :-ज्ञानपदः, नासिकदर्शनम् सा ज्य शारपा परिहरणोपम् । न त्वत्राग्रे वक्ष्यमाणेस बान्तिरेषिया इमाऽपल्यत्वाऽऽनकापि विषया, अन्यथा तामेत्र छापलभ्य प्रतिष्ठा विपयपिपासापिशाची छापये दिति भावः । ११२॥
[द को उगाई के छिये चावधि मन का प्रतिप दन - यह वर यकशून्य]
व बान ने विविध भस्यागरों में लोक को भीत कर रखा था । वेघराज पन्द्र इल मय से उसे मारने को अपत महों होते थे किया प्रमा का प्रमण है, अतः उस के वश में प्रयाहत्या का पाप होगा । इस लिये देवगुरु पृहस्पति ने पाकिमत का सायम कर इन्द्र को यह बताया कि वे से मिम्न आत्मा का अस्तित्य नयाभरष्ट एवं स्वर्ग, नरक मावि के ग्रामाणिक होने से वृत्रयध से प्रारया आदि होने का भय करमा पर्थ है, तुम्ने निषित होकर वृध का वध करमा धाइये जिससे लोक सम के माता से मुक्त हो सके। अन्धकार का कहना है कि वार्याकमत की इस प्रकार से अपात्र बनाना ठीक नहीं है क्योंकि विपक्ष इन्द्र को इस प्रकार पदों भुलाया जा सकता था ९१९॥
विषय लाम्पत्यजनक नास्सिक दर्शन सर्वधा स्याश्य है। इस कारिका में पूर्वोक्त घियारों का उपसंहाय किया गया है कारिका का अर्थ इस प्रकार है
चार्वाक मत केवल व्यष्टि से ही मसत्य नहीं है किन्तु सर्वथा असत्य है-स लिये किया परलोक भादि सभाव का साधन कर अध्येता के त्रिसको विषयासक्त बनाता है, पथ परलोक की चिन्ता, करने वाले पहिक सुख को ही सर्वस्व माननेवाले लोगों से स्व पूर्यक सिमित हैं और इसी लिये सुमने मात्र से ही पाप का अकमला सिमाल ममुष्पों को नास्तिकदम को इस प्रकार मानकर उसका समिना परित्याग ही करना चाहिये । मागे अन्य शास्त्रों की जो बाते कही जायगी,
जो पचायत में इण्यालयव को शर भी नहीं करती गाहये भम्यथा स्वभावपुषा विषयों को पिपासाका राक्षसी उसी बहाने मनुष्य को सहने लगेगी ॥५या
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