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________________ ३२१ यूक्तिमुक्तिप्रसरहरणी नास्ति का नास्तिकानाम् । सर्चा गर्वाध फिम न दलिता सा नगरास्तिकानाम । ध्यस्ताऽऽलोफा शिट जगति परिवार तस्माद : कि नोरलेस्त्री रविकरतिस्सहोदेति तस्याः । ॥१॥ बाप्तामिमामम निशम्य सम्यक् त्यक्त्वा रसं नास्तिफदर्शने पक्रान्तिकास्यन्तिकशमहेतुं श्रयन्तु वाई परमाईतानाम् ।।२।। नास्तिकों की कौन सी युक्ति है जिस से मोक्ष लाभ में बाघा नको होती। और जिसे आस्तिक लोग अपनी नीति से गर्षपूर्वक निरस्त नहीं कर देते । संसार में भाधकार की कौन सी धारा है जिस से आलोक का प्रसार भषयच नारी घोसा। भौर जिसे नष्ट करने के लिये सूर्य.की दुस्सह किरणमाला का उदय नहीं होता! इस विषय में उन घनों को सुनकर मास्तिक दर्शनों से मन को पूर्णतया बना लेना चाहिये और केवल धीतरागसपक्ष मईत् के भनुयायी अंगों के सिद्धान्त काही भाश्रय लेना चाहिये क्योकि उसी से निश्चितरूप से गम्तिम कल्याण हो सकता है॥शा अभिप्रायः रेरिह हि गहनो दर्शनातिनिरस्या दुधर्षा निजमतसमाधान विधिना । तथाऽप्यत: श्रीमन्न पविनयविशाहिभजने न भग्ना चेद् मक्किन नियनमसाध्यं किमपि में ||३|| यस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयप्राशाः प्रकष्टापाया, भ्राजन्ते सनया नयादिविनयपाज्ञाश्च विद्यापदाः । प्रेममा यस्य प सम पारिनयो जातः मृधीः सोदरः मेन न्यायविधारदेन रचिले अन्ये मनिर्दीयताम् ।।४।। [पा. श्रीमद् यशोविजय ना की अपने गुरुदेव श्री भव जय महाराज के प्रति श्रद्धा] मूलप्रयकार श्रीहरिभवसूरि का अभिप्राय दुर्गम है, अपने मन को प्रतिष्ठित करने की प्रणाली से दुर्घष मण्यदार्शनिक मिनालों का झण्डन करना है यपि यह दोनों ही कार्य गत्यात तुकर हैं, तथापि यदि विवषर श्रीमान् नपविजय के चरणों में मेरी भनट भकि है तो मेरे लिये कुछ भी मसाथ्य नहीं है ॥३॥ महामना प्रायवर 'प्रीतविजय' जिस के परमगुरु थे तथा मयमिपुण विखवर 'जयविजय' जिस के थियावायक(दीक्षा)गुरु है, पायं मैम के माधार विधान पविजय' जिसके सहोदर माता है, उस पायविशारर ने रस प्रमथ की चर्मा की*. Faratha प्रार्थना है कि वे इस प्राय छे अवलोकन में :दसमित हो || प्रथमस्तवक समाप्त
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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