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............ शास्त्रवातासमुच्चय-इतबक र लो० ७८ रोषाधग्रहेऽपि तमस्त्वप्रहात्, ताशतमस्त्यावरिकन्नधर्मिकनीलारोपाऽयोगापन इति अधिकं शदमालायाम् ।
इमा गिरं समाकये सकर्णा बाहुलीमिव उद्वमन्त मुर्श ध्वान्तेऽत्राऽभावस्वभ्रम विषम् ॥1 मस्मान्न जायने किविवेकान्तान्न च नवपति
प्रसिद्ध निखिसायीनां लक्षप हि लक्षणम् ॥२॥ ॥७७॥ उपसहरन्नार
एवं चैतन्यमानात्मा, सिवः सततभावतः ।
परलोक्यपि वितेयो युक्तमार्गानुमाभिः ||७८॥ एवमुक्तयुक्त्या, चनन्यवान ज्ञानोपादानम, मामा पारीरभिन्नः, मिमः । में भी तेजासंसर्गाभाव होने से उसमें भी सम का प्यषधार होने लगेगा। पता नीलपारोपििशष्टतेजासंसर्गाभाव ही समई, मीलो दृष्टय से संस्तु आलोकस्य वस्त्रादि में जासंसर्गाभाव न होने से पर्व आलोक में नीलरूपासेप न होने से उक्त मोष नहीं हो सकते ।" .|कन्तु यह मत भी ठीक नहीं है क्योंकि नीलोप का हान न रहने पर भी तमको प्रतीति होनो है, पर यदि उसे तम के स्वरूप में प्रविध कर दिया जाएगा तब उसकी मानवशा में नम की प्रतीति न हो सकेगी। दूसरा दोष कि इस मत में 'नीनं नमः इस प्रकार समः पदार्थ में मीसप का मारोपमो सकेगा, क्योंकि तम पवार्थ के (जारिका शारीर में नीत्वरूप पहले से ही प्रविष्ट है भल। उसमें नीलरूप का आरोग निरर्थक है। नमके यारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिये प्याक्याकार ने 'बदमाला नायक स्वनिर्मिन प्रस्थ देखने हो सिफारिस की है।
दो निमित पद्य में पायथाकार कहते है कि सम की आभाषरूपमा के निरा. करणार्य प्रयुक कीये गमे वचन को सुनकर सभाषामतमोयादियों का अन्धकार में भमावत्य के भ्रमरूप विप का ठीक उसी प्रकार वमन कर देना पहिये जैसे विषय के विषहरणामन्त्र की वाणी को सुन कर साप से इसे मनुष्य माप के विध का मन कर देता है। [अन्धकारद्रव्यमान समाप्त
उपर्युक युक्तियों से यह सिख किन किसी घम्नु की अपूर्व उत्पत्ति होती है और किसी घस्तु का भात्यातक नाश होता है, किन्तु उत्पा-व्यय-धौष्य इन सीनों से समेख युस देना भी सभी पदार्थों लक्षण है।
मात्ममिद्धि का उपसंहार मात्मा के सम्बन्ध में अब तक किये गये सभी षिवारों का कारिका ७८ में उपर्स हार कर रहे
उक्त मुकियों से यह सिद्ध है कि हाम का उपादाम शरीर से भिगा है. और यही
-ग नाहमाला का प्रलाकार प्रकाशन स्तृत FIT नफा है निगमें 'अन्धका मन्त्रमा मी विस्तार से दिया है।