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शास्त्रासमुच्चय-स्तक २०७४
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'इन्द्रियाण्येवात्माऽस्तु' इति चेत् न मिळतानां तेषां शानायाश्रितत्वे चक्षु रादिशुन्यस्यापि वाचाद्यप्रसङ्गात् । चश्रापस्यैव त्वगादि च त्याचादेरेवाश्रयः' इति श्वेत् ? 'योऽयं स्पृशामि सोऽहं पश्यामि इति प्रतीत्यनुपपत्तिः बभ्रुषा दृष्टस्प वस्तुननशेऽन्येन स्मरणानुपपसिंध | 'चक्षुरादिजन्यनानाज्ञानाधिष्ठानमेकमेव नित्यमिन्द्रियम्' इत्यभ्युपगमे तु संज्ञामात्र एव विवाद इति दिग् ||७४ ||
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नन्नुपादाने चैतन्यमस्तु किमात्मना ? इत्यत आह
[निष्कर्ष–चैतन्य का उपादानकारण आत्मा भूल से भिन्त है ]
उत्तरीति से मातृबैतन्य पुत्रम्य का उपादानकारण किसी भी प्रकार नहीं हो सकता तः मातृसमय से अतिरिक्त ही किसी को चैतन्य का उपादान मानना होगा, केतन्य का जो पेसा उपादान होगा उसी को भूतों से मित्र आत्मा के रूप में स्वीकार करना होगा । यदि दे कि शरीर की वृद्धि मे चैतन्य में वृद्धि और शरीर के हाल सेत में हास होता है अतः शरीर को चैतन्य का उपादान मानना आवश्यक है तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अजगर सर्प का शरीर विशाल होने पर भी उसमें चेतन्य की अपा होती है. और सात्यिक पुरुष का शरीर तप आदि से कृश होता है, तो भी उसमें शा की अधिकता होती है, वृद्धिहास के व्यभिचार होने से शरीर में ग्राम की उपादानता नहीं सिद्ध हो सकती। शरीर धाम की उत्पति में सहकारी अवश्य है, पर ज्ञान का बुद्धि द्वास उसके वृद्धि-कास पर निर्भर नहीं है, वह तो दन्द्रिय की पड़ता और अपडमा पर अवलम्बित है ।
[मात्मा इन्द्रियों से भी भिन्न है।
यदि यह शङ्का करें कि जब कान का हाल इन्द्रिय की पतापयं अपटुता पर अवलस्थित है तब उसी को ज्ञान का उपवासभूत आत्मा मान लिया जाय, अतिरिक्त आश्मा की कल्पना व्यर्थ है" - तो ग्रह उचित नहीं है, क्योंकि सभी प्रक्रियों को मिलित रूप में शानादि का आश्रय मानने पर चीन को स्पार्शन आदि शाम के भी अभाव की आपति होगी और यदि तत्तत् प्रिय को सर्नु हुन्द्रिय से होने वाले ज्ञान का भाश्रय माना जायगा तो किसी एक ही आश्रय में चाक्षुष और स्पार्शन की उत्पति न होने से में ही स्पर्श करता है और में ही देखता है इस प्रकार एक व्यक्ति में चाक्षुष और स्पाशेन का अनुभव न हो सकेगा। साथ ही चक्षु से विषय का ऋतु के अभाव में स्मरण भीम हो सकेगा। यदि यह कल्पना करे फिक्षु भारिन्द्रियों से भिन्न कोई एक नित्य दक्षिय है जो उन सभी इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान का आध्यय होता है तो इस कल्पना के अनुसार एक अतिरिक्त नित्य हाना की तो सिद्धि हो ही गई। अब पिवाद केवल उसके नाम में रह जाता है कि उसे इन्द्रिय कहा जाय या अम्मा कहा जाय, सो इसके विवाद का कोई महत्व नहीं है क्योंकि किसी भी नाम से भूतातिरिक माता की सिद्धि होने से आस्तिक का लक्ष्य पूरा हो जाता है ॥७४॥
माण, संतभ्य तथा रवि चैतन्य का तय की उत्पत्ति मानी जाय, अतिरिक
होता है कि यदि कायाकारभूत उपादान नहीं होता तो बिना उपधान के ही