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________________ स्मारक टीका वषि १८५ चादू त्याशयः । अत एवाइ- प्रदीपज्ञातमधि यथा दीपाद दीपान्तरमुत्पद्यते तथा मातृ चैतन्यात् तयमिति निदर्शनमपि प्रदीपस्य निर्मित कारणत्वात् प्रकृते च तस्वस्याप्यमा के सिद्धिपतिम्। वस्तुतः शरीरविशेष इस चैतन्यविशेषे मातृशरीरस्य निमित्तकारणत्वसम्भवेऽप्युपादानत्वस्य सामान्यत एव कल्पनाद् मात्रशरीरस्य तचैतभ्योपादानत्यं नास्तीति ॥ ७३ ॥ फलितमाह मूलम् न तदुपादानं युश्यते तत् कथञ्चन । अन्योपादानमा च तदेवात्मा प्रसच्यते ॥ ७४ ॥ - इथक्कन्यागेन तर मातृसरीरं कथञ्चन - केनापि प्रकारेण तदुपादानं मृनचैतन्योपादानं न युज्यते । अन्योपादानभावे च मातृशरीरानिरिकसून चैतन्य न्योपादान | सद्भावे च स एव भूवातिरिक्त आत्मा तच राज्यते । शरीरवृद्धिविकारयांचैतन्यवृद्धिविकारोपलम्भस्तु न तदुपादानत्वसाधकः, अजगर - सात्त्विकादो व्यभिचारात् शरीरस्य सहकारित्वेऽपीन्द्रियपाद वाऽपादाभ्यां शरीरवृद्धि विकारयो चैतन्यवृद्धिविकारसम्भवाच्च । भागने में व्यतिरेक व्यभिचार होने से पुत्रसम्य के प्रति मातृतस्य को निमिन कारण भी नहीं माना जा सकता। इसी लिये 'शेप से दोपस्तर को उत्पत्ति होती इस छत से उसी प्रकार मातृयेतस्य में पुत्रन्तस्य की भी उत्पति हो सकती है' यह ह दिखाने से भी अतिरिक्त आत्मा की सिद्धि में बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि दीप के प्रति दीप के निमितकारण होने से दृष्टांत तो बन सकता है, पर उससे दाष्टांतिक जिसके लिये प्रयुक्त है, उसकी अर्थात् मदरसे तय को उत्पति का समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि स्वेप्राणियों के तस्य में मातृतस्य का व्यभि यार होने से भ्रमस्य और मातम्य में कार्यकारणभाव हो नहीं सकता। हो सच बात तो यह है कि ऐसे मारी के बिना भी स्वैशरीर को से शरीर सामान्य के प्रति मातृशरीर तो निमित्तकारण नहीं हो सकता, पर मनुष्य व्यानि के शरीरविशेष के प्रति तो शोर निमित होता ही है. क्योंकि उसके चिना प्यादि के शरीर की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार चैतन्य सामान्य में मातृतन्य कारण मनुभले न हो पर मनुष्यादि के बेतन्य विशेष में माहवेतस्य तो निभित्र कारण हो ही सकता है, किन्तु प्रस्तुत है सामान्यरूप से वेतस्य के प्रति उपादानकारण का विचार, और उस विचार का निष्कर्ष यह है कि चैतन्य के प्रति मादचैतन्य को उपादान मानने में स्वेदज प्राणियों के चैतन्य में व्यभिचार होता है, महः पुत्र चैतन्य के प्रति मातृचैतन्य उपादानकारण नहीं हो सकता, इसलिये तस्य के उपादानकारण के रूप में मतिरिक्त भात्मा की कल्पना अनिवार्य है ||३३|| कारिका ७४ में चैतन्य के उपादान कारण के सम्बन्ध में उपर किये गये सारे विचारों का फलितार्थ बतला गया है, जो इस प्रकार है
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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