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________________ - -..- ... . -...- M A . ..... शास्त्रवासात मुरुचय-स्तवक १ ग्लो० दोपान्तरमप्याह मृलम्-न च संस्थेदजायेषु गात्रमादेन सद भरेत् । प्रदीपज्ञासमन्यव निमतःवान बाधकम् | ५३|| नव संस्खेदजायेषु- यूकादिए, गावभावेन स्वनानफस्रोशरीगभाचेन, तत् चैतन्यमनुभवसिद्धमपि भवेत् । परं च व्यभिचारात् निमित्तकारणत्वमपि मानसरीरस्य नास्तीचैतम्पकी उत्पति हो जाती है। इसलिये चैतन्य के प्रति पतन्य ही कारण हो सकता है. मापारीर मावि कारण नहीं हो सकता । प्रहा मेधा भावि विशिष्ट सन्य के प्रति भी मम्यस्पमान पूर्वकालिक सकातोपतन्य ही कारण होता है क्योंकि वही चैतम्यविशेषात्मक कार्य के प्रति भरतरत है। सायम आदि का सेवन तो बहिर होने से कारण मा राकमा. ग. ह. प्रयोगा का जनक है, क्योंकि यदि वही तायशेष का जनक हो तो एक साथ उत्पन्न होने वाले नो व्यक्तियों द्वारा समान रूप से रसायज मान का सेवन करने पर भी उनमें से किसी एक ही को किसी विशेष षिषय का ही जो विशिष्टज्ञान होना है, उसे यह नहीं होना चाहिये, किस्तु होता ऐसा ही है, अतः इस की उम्पत्ति के लिये याही मानना होगा कि खैतन्य का उत्पादक चैतम्य ही है। जो व्यक्ति रसाया यादि का सेवन पारसे हुये जिस विशेष विषय के पैतम्य का अजवर्तन करता है, उसे रसायनालेवन के सहयोग से विशेष विषय के बैतन्यानुषर्तन से उस विषय का विशिष्ट हाम हो माना है. और जो रखायन का केयक सेवन ही करता है. किसी विशेष विषय के ज्ञान का अनुवर्तन नहीं करता उसे विशेष विषय का विशिष्ट शान न होकर उसके भानार्मम की क्षमता का उत्कर्ष मात्र होता है. अतः चैतन्य के प्रति चैन्य से विलक्षण पदार्थ की कारणता सिस, होने से माधिसभ्य से पुत्रश्चेतन्य की उत्पत्ति माननी उत्रित नहीं है। ___ यदि यह चाहा की जाय किन्द्रिय मैग्निकर्म थावि वहिरा फारणों से ही मान की उत्पति हो सकती है, अतः सामाग्गरूप से कान के प्रति शान को कारण मानना बावश्यक नहीं है तो यह शो उचित नहीं है. क्योंकि सुपुति आदि अवस्थाओं में कोमल कठोर विस्तार तकीये भादि के साथ स्वयूदन्द्रिय पा संजिकर्ष होने पर भी हानको उत्पत्ति नहीं होती अनः अर्थयोध के प्रति उपयोग को-सानात्मक बोधव्यापार को कारण मानना आवश्यक है, इस घिषश का विस्तृत विचार. अश्यप रष्टाय || पुत्र चैतन्य के प्रति मानतन्य मित्तकारण भी नह।') कारिका ७३ में पुतन्य के प्रति मातमैन-य को कारण मानने में एक अन्य दोष भी बताया गया है, जो इस प्रकार है । केश कीट, मस्छ मावि की उत्पसि किसी श्री शरीर से गहीं होती। नाबारीर अयोनिज होता है और स्प्रे बगर भारी रगरा या हितमल आदि से उलान होता मतः हम प्राणियों की मातायें नहीं होती | मष यदि बैतन्य की उत्पत्ति मानुशारीर के बसन्य से.बी मानी जायगी, तो इन प्राणियों में चेताय की उत्पत्ति न हो सकेगी, जब कि इनमें वेतन्य अनुभव सिम है। तो इस प्रकार उक्त प्राणियों में भारतम्य के विमा मा पेराम्य की उत्पत्ति होने से पुत्र के चतन्य के प्रति माहशरीरगत चैतम्प को कारण
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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