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________________ स्या क० टीका लिपिक २५१ . मचिदमसंगवाभिधान, भोगनिर्वाहफस्यात्मधर्मस्यैवाटस्य कल्पनात् । तदुक्तम् - "सम्भोगो निर्विघोषाणो न भूतैः संस्कृतैरपि" न्यिा००१-९] इति । तथा वित्रस्वभावत्वमप्यदृष्टस्यानुपपन्न, तजारपे मानाभावावः तत्सत्ये क गो विनिष्पादृष्यहेतुत्वे गौरवाच । न च फोननाश्यतावकछेन कसया तसिद्धिः, तददृष्टत्वस्य स्वाश्रयमन्यताविणामथिोष की ही फलमेवप्रयोगकता सिम होती है। ___ अदृष्ट को भूतधर्म मानने पर यह यक्षा होती है कि- "तुम्न दुःसा " भोगरूप फल तो भास्मा में होता, अंतः थाए आत्मा का धर्म होने पर ही उसका ससान कर सकता है, किन्तु यदि घर भूतधर्म होगा सो धधिकरण होने से पह आत्मभोग का सम्पादन न कर समगा, जैसा कि उवयनाचार्य ने 'न्यायकुसुमालि' में 'सम्भोगो निर्वि शेषाणां इस कारिका से कहा है कि शात्मा द्वारा किये जाने वाले शुभ, अशुभ कर्मों से यति माग्मा में किसी विशेष संस्कार या भनट का उपयन होगा तो उन कर्मों से भूनदयों में संस्कार प्रष्ट का जन्म होने पर भी उन से आत्मगत भोग का अपेक्षित रीति से जापान न हो सकेगा । 'मरघट अपने रूपमाषमे-जातिमेर से विभिनफलों का निर्यातक होता है'-या कथम मी ठीक नहीं है क्योंकि अहट में जाति में होने में कोई प्रमाण ना है। समी शुभकमों से पकनासोय ही अष्ट्र का जन्म होरा है। यदि भिन्न भिन्न कर्मा से भिन्न भिन्न जाति के मदृष्ट का जन्म माना जायगा तो धर्मामास्य के प्रति शुभम मात्र को पर्व मघम सामान्य प्रति अशुभम सामान्य को कारण न मानकर विजातीय चिजातीय धर्म-अधर्म के प्रति भिन्न भिन्न कर्मों को कारण मानने में गोरष होगा। [अदृष्ट में जातिभेद अभामाणिक नहीं है, WE में जातिमेम मानने के बिस यहा डोती है कि "यह ठीक नाते हो सकता कि भिन्न भिन्न शुभकमों एकजानीयको भर का सम्म हो । फलभेद तो तसत् कमों की भिन्नता से ही उपपम हो जायगा मरए तो उन कमों का फलजन्म के समय तक रहने वाला एक व्यापारमात्र, अतः फलभेद के लिए उस में जातिमेद की कल्पना अनारवयक है"--पर निवारणीय नर है कि यदि महट में जाति मेहनहीं माना जायगा तप तत्ताकर्मों के कोर्तन से ततकम्य अहए के माश की व्यवस्था कैसी होगी ! माशय यह है कि विभिन्न कर्मों से अपनानेवाले मप यदि भिग्न शिम जाति के म बोगे तो उन्हें भटपुरवा से हो सत्ता का के कीर्तन से पाइप मानना होगा और तप यह व्यवस्था न बन सकेगी कि अमर कर्म के कीन से ममुक भरष्ठ काबीनाश दो, अपितु कमै केकीन से भापकम्य मयू का भी नाश होने लगेगा मतः मिग्नभिन्न का से ही तत्कमप अरर को तत्ताकर्म के कीर्वन का माश्य मानना होगा तो इस प्रकार कीर्तन र नावपतबाइक कप में NEE में आतिमेव की कल्पना भाषश्यक होने से यह कहना कि 'माए में जातिभेद
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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