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________________ शालचासो समुख्य मूलप्रन्थ के प्रथम पप में तीन बातें बतायी गई है - (१) प्रन्थ की रचना के पूर्व परमात्मा को प्रणामरुप मंगल किया गया है। ( २) ग्रन्थ की रचना भल्गबुद्धि मनुष्यों के हितार्थ की जा रही है। ( ३ ) प्रन्थ में सभी शास्त्रों के सिद्धांतों का वर्णन तथा उनमें प्रतीत होने वाले विरोधों का समन्यय किया जायेगा। इस पद्य की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए व्याख्याकार का कहना है कि भगवान हरिभद्रसूरि ने देखा की (१,जगत् के सभी जीष अशान के अन्धकार में पड़े है। इस अशान ने उनके झान--प्रकाश को निरस्त कर दिया है। जीवों की यह दशा देख कर भगवान् को उनका उपकार करने की अशान को दूर कर उनके शान-आलोक को उद्दीप्त करने की इच्छा हुई । इस सछाके वशीभूत हो श्राचार्य भगवान् ने 'शाखवातासमुच्चय' नामक प्रस्तुत (२)मकरण प्रन्थ की रचना प्रारम्भ की । प्रन्थ के आरम्भ में उन्होने परमात्मा को प्रणाम करते हुए मङ्गलाचरण किया और ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख किया । मङ्गलाचरण इसलिये किया कि जिससे प्रस्तुत ग्रन्थ की निर्विघ्नता पूर्वक समाप्ति हो, और प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख इसलिये किया, जिससे उस विषय के जिज्ञासु (३)प्रेक्षाधान पुरुषों की प्रस्तुत प्रन्थ के अध्ययन में प्रवृत्ति हो । (१)-जगत्-इसका अर्थ है संसार में आसक्त जीवसमूह । द्रष्टव्य-गङ्गेशोपाध्याय के तत्त्वचिन्तामणि प्रत्यक्षखण्ड में प्रामाण्यवाद पर तार्किकशिरोमणि रघुनाथ की व्याख्या दोधिति । अथवा जगन्ति जनमान्याहुजंगा झेयं चराचरम् ।'-ध्यानशतकटीका । (२)-प्रकरण---शास्त्रकदेवासम्बद्धं शास्त्र कार्यान्तर स्थितम् । आहुः 'प्रकरण' माम प्रन्यभेदं विश्चितः || पराशर उपपुराण । जिम ग्रन्थ में किसी एक शास्त्र के प्रतिपाय विषयों में किसी एक ही विषय का प्रधान रूपसे प्रतिपादन होता है, और साथ ही सम्बद शास्त्र से अतिरिक्तशास्त्र के विषयों का भी प्रयोजनानुसार समावेश किया गया होता है, विद्वज्जन उसे 'प्रकरण' ग्रन्थ कहते है । ३)-प्रक्षावान्-इसका अर्थ है प्रयोजन का सम्यक प्रेक्षण करके ही किसी भी कार्य में प्रवृत्त होने वाला । इष्टव्य-प्रामाण्यवाद दीधिति पर गदाधर भट्टाचार्य की विवृति ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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