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________________ श्या० क० ठीका यदि वि. २८७ [सुप्ति में जीवनयोनियान की मला आवश्यक उत्तरपत] पर विचार करने पर उक्त शंका का यह समाधान समीचीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि पति के समय भी मनुष्य के शरीर में वेष्टा देखी जाती है अतः उसकी उत्पत्ति के लिये उस समय मा जीवनयोनियमन मानना आवश्यक है। अतः सुपुप्ति सम्पादिका मनःकिया से प्राकन आत्ममनः संयोग का नाश हो जाने पर भी वनयोनियल से नयी मनःक्रिया होकर उससे ये आत्ममन:संयोग की उत्पति का समय होने से उसके बल से सुपुटिस के समय आत्मज्ञान की उपति निर्वाधरूप से पारित हो सकती है 'सुपुति के पूर्व मनःकिया से प्राम ममममः संयोग का नाश सर्वत्र हो हो जायगा' यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि नाडी आदि की क्रिया से भी होती है तो जहाँ नही की किया से सुरित होगी वहाँ उसके पूर्व मनःकिया न होने से प्राकम आम्मममःसंयोग सुरक्षित रह सकता है. अतः उस से भी जक सुप्रति के समय ज्ञान को आपत्ति हो सकती है। सर्वत्र मनःक्रिया से ही सुषुप्ति होती है यह कथन सार्वत्रिक न होकर क्वाटिक है. अतः गाडी आदि की क्रिया से सुपुति मानने में वो कम जोकि 'खुपुटिन सर्वत्र मनःक्रिया से हो होती है. अतः सुनि पूर्व के प्राक्तन आयोग का नाश अनिवार्य है साथ ही यह भी मान लिया जाय कि 'सुप्त मनुष्य के शरीर में जो चेष्टा जेल यस्तु देखी जाती है घर पोष्टा न हो कर सामान्य किया होता है जो वायुसंयोग से भी हो सकती है। मसः सुपुति के समय जीवन मानने की आवश्य कता न होने से नयीन आश्मासंयोग को भी उत्पत्ति नहीं हो सकती' तब भी पुलि के समय आत्मज्ञान को उत्पस्यापति का परिवार नहीं हो सकता, क्योंकि विजातीय भारम मनःसंयोग का भर से अतिरिक्त कोई कारण नहीं है, बोर काल में भी विद्यमान रहता है. अतः उस से नघोन विजातीय आयोगको उत्पत्ति होकर उसके ताल से उस समय आत्मा की आपत्ति में कोर पाधा नहीं हो सकती । समयकाल में त्याचप्रत्यक्ष की आपत्ति के भय से जो यह कहा गया है कि 'रसना मन:संयोगकाल में त्वमासंयोग नहीं होना ठीक नहीं है, क्योंकि जन्यज्ञान मात्र के प्रति मनः संयोग के कारण होने से उस समय भी उसकी लता आवश्यक है । उस समय म्याच प्रत्यक्ष की प्रो उत्पति होतो उसका कारण यह है कि उस समय मनःसंयोग नहीं रहता, किन्तु उसका कारण है हम द्वारा उसका प्रनियध हो जाता माधुपप्रत्यक्ष की सामग्री के समय उन सामग्री में निषिष्ठ काम का मानस प्रत्यक्ष नहीं होना क्योंकि वह भी मष्ट से प्रतिबध्य हो जाता है। तो जैसे समयकाल में त्वा का और बाप प्रत्यक्षकाल में प्रसमीट ग्राम के मानप्रत्यक्ष का अट से प्रतिवन्ध माना जाता है उसी प्रकार सुपुतिकाल में माम ज्ञान का प्रशियन् भी अष्ट से ही मानना उचित है, अतः वात्मा स्वमकाशानरूप नहीं है किन्तु प्रमाणान्तर है। खुतिकाल में प्रमाणश्यापार न होने से हो उल समय आत्मक्षति का जन्म नहीं होगा यह कदम असंगत है। इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जो लोग ज्ञान को स्वप्रकाश न मान कर इन्द्रिय मादि से ये मानते हैं उनके मन में सभी काम का संवेदन मान्य
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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