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उपसंवराह
शास्त्रबातसमुचय - स्तबक लो० ८७
मूलम् -- मतः प्रत्यक्षसिद्धः सर्वप्रथम ।
स्वयंज्योतिः सदैवात्मा तथा वेदेऽपिच ॥८७॥
अतः = अहम्प्रत्ययस्य । ऽनन्तात् अयम्-आत्मा सर्वप्राणभृतां प्रत्यक्षसिद्ध = प्रत्यक्षप्रमाणविषयः । न केवलमिदमनुभयगर्भया युक्त्यैव म: किन्तु परेषामागमो ऽप्यत्रायें साक्षी इत्याह--अनुभवानुसारेण वेदेऽपि आत्मा सदैव स्वयंज्योतिस्वमितिज्ञानाभिन्नः पाते "आत्मज्योतिर पुरुष" इति ।
एतेन वेदप्रामाण्याभ्युपगन्ता ज्ञानपरोक्षत्ववादिनां मीमांसकानां मतमपहस्तितम् परोक्षत्वे ज्ञानस्यैवाऽसिद्धेः । न च ज्ञावतालिङ्गेन तदनुमानं तस्या एवाऽसिद्धेः । घटादेः कर्मवान्यथानुपपच्या तस्मिद्धिः क्रियाजन्यफलशास्त्रित्वं हि तत् न च घटे ज्ञानजन्यमन्यत् फारमस्तीति वाभ्यम् एवं सति घटः कुतो पट इत्यादिप्रतीतितादेर्शप सिद्धिप्रसङ्गात् ।
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नहीं है किन्तु किसी भी ज्ञान के उत्पन्न होने पर उसके मानस प्रत्यक्ष को उत्पत्ति का परिवार नहीं हो सकता क्योंकि उसका माइक मनःसिक सहित रहता उसके परिहारार्थ ज्ञानज्ञान प्रतिविषयान्तर में मनसंचार का प्रतिबन्धक मानने में गौरव होगा, इसलिये ज्ञान को इन्द्रिय आदि से बेथ न मानकर उसे हदप्रकाश मानकर ज्ञानमात्र को सर्वेय संविदिन] मानना ही उचित है। सुपुत्रिकाल में जो 'अहं जाने' इस प्रकार के आत्मज्ञान का उदय नहीं होता उलका कारण उतमान के किसी साधन का अभाव नहीं है अपितु उसका कारण हे वातावरणकर्म अ से उस शाम को जन्म देनेवाली शक्ति का आवरण इस साम्यता में भाश्मशान के प्रति अरू प्रतियक की कल्पना से जो गोरव प्रतीत होता है वह फलमुख होने से राज्य नहीं है ।
ही है
प्रस्तुत कारिका 49 में उपर्युक्त सभी विचारों का उपसंहार किया गया है[नास्तिक मतनिराकरण का उपसंहार]
मम इस प्रकार की प्रतीति सभी प्राणियों को होती है । यह प्रतीति भ्रमभिम्म प्रत्यक्षरूप है, अतः इसके बल से आत्मा सभी प्राणियों की दृष्टि से प्रत्यक्ष सिद्ध है । यह बात केवल अनुभव गर्भ युक्ति पर ही आधारित नहीं है किन्तु परकोप आगम- बेद से भी यह बात समर्थित है । वे में रूप कहा गया है कि 'भात्मा सदैव स्वयं ज्योति है' अर्थात् स्वप्रकाशशानस्वरूप है ।
[परतः प्रकाश ज्ञानवादी सीमासकमत
का खंडन ]
वेद में स्वप्रकाशज्ञान का घन होने से ही वेद को प्रमाण मानने वाले महमीमांसकों का यह मत भी निराकृत हो जाता है कि 'ज्ञान स्वप्रकाश या प्रत्यक्षवेध न होकर