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________________ स्वा० क० टीका व हिं०वि० सामानाधिकरण्येनातु भयात्, "अन्योऽन्तर आन्सस आणमया [तैशि० २-२-३] प्रति तेच प्राणस्य चैतन्यानभ्युपगमे महान विसर इति भावः । अभीच्यते - इति 'क' १ ।। ७१ । --WA"" मूळम् सवित्तमवचैतन्यजेयम् । ते तस्मिन्न दोषः स्यान्न न भावेऽस्य मातरि ॥७२॥ सर्वैलक्षण्यसंविनैः - प्राणधर्मसामानाधिकरण्येनाऽप्रमीयमाणत्वात् नैवमित्युपस्कारः । न हि प्राणधर्मः स्पर्शविशेषादिः अहन्त्वमामानाधिकरण्येनानुभूयते तथाऽनुभूयमाने पुनरशनीयापिपासेात्मकत्वादात्मश्रमचैिव न तु प्राणधर्मो, इति न प्राण एवात्मा । "अस्तु तर्हि कायाकारपरिषतं सूतमात्मा' इति मोलमेव मतम्, 'अहं स्थूलः' इत्यादि दूधर्म सामानाधिकरण्येनानुभवात् इति विस्तृतप्रागुक्तदोषः शङ्कते जयम् उक्तो दोषः हि निश्चितं मातृचतन्यजे ने पुत्रशरोरे, सस्मिन् चैतन्येऽभ्युपगम्यमाने न स्यान् न तचैतन्यदेवीचेतन्यस्याभावोऽस्ति ऐन मातृचैतन्यस्यैव तद्धेतुस्यात् नापि सुषुनियाक्काक्रीन विकल्पस्य जागरविकल्पहेतुत्वदर्शनात् । न च मातृचैतन्यमृत चैतन्ययं ळक्षय्याद् नहेतुहेतुमहति साम्प्र तम, वृश्चिकादिव गोमयादपि वृश्चिकप्रादुर्भावदर्शनात् चैतन्येऽपि मातापितृशुशोनियायासरसायनादिना नाहेतुकल्या विरोधादिति । पता का समर्थन होता है। इसी प्रकार अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयश्च - अन्तरात्मा वेद इन्त्रिय आणि से भिष्म प्राणस्वरूप है इस सृति से भी प्राण के आरमस्य का समर्थन होता है, अतः प्राण में चैतन्य न मानने पर इस सम्बन्ध में वितर्क का पूरा असर है कि चैतन्य को प्राण का धर्म न मानने का क्या कारण है 12 कारिका के 'म्' इससे इस शंका के समाधान का संकेत किया गया fasten कारिका में स्फुट करते हैं । ७१ ॥ [प्राण-आस्मरूपत्ववाद का खंडन. कारिका में अहम आत्मा में प्राण धर्मो के अनुभव का तथा माता के चैतन्य से सम्मान में चैतन्योत्पति का सदन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैarrai were में प्राणधर्म के सामानाधिकरण्य की प्रभा न होने से प्राण को आत्मा नहीं माना जा सकता। कहने का आशय यह है कि प्रान शरीर के भीतर संचरण करने वाला विशेषप्रकार का वायु है, शुरू होने से स्पर्श किस भादि उसके धर्म है, उन धर्मों का समर्थ मामा में अनुभव नहीं होता। अहमर्थ आत्मा में अनुभव होता है writer और दिपाला का, किन्तु ये प्राण के धर्म नहीं है, क्योंकि भाभीया का अर्थ है भोजन की इच्छा और विपासा का अर्थ है पीने को छ, स्पष्ट है कि इच्छा सात्मधर्म है प्राणधर्म नहीं है, यतः न धर्मों में अश्व के सामानाधिकरण्य कर था. वा. २५
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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