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मास्कबासमुच्चय-सह १ को ७२ अनुभव होने पर भी उसके पल से माण-मात्मय का साधन नहीं हो सकता ।
[कायाकारपरिणत भूत ही मात्मा है -पुनः मार्शका] हात्मयाद में पूर्वोक श्रोषों को भूल कर नास्तिक द्वारा पुनः यह पाका प्रस्तुत की आती है कि "यदि उक्त दोषयश प्राण को भागमा मह माना जा सकता तो मत मानो किन्तु यही माना माय कि शरीररूप में परिणत भूत ही मारमा है, क्योंकि आरमधर्म भरमय में भूत के स्थूलरय आवि धर्मों के सामानाधिकरण्य का अनुभव 'भई स्थूला मह प्रशः, आई लघुः, अनं वीर्घः' इत्यादि रूपों में सर्वमान्य है। प्राणात्मयाद में बताये गये पोष पेहात्मयाव में नहीं हो सकते; क्योंकि पुरषेद की उत्पत्ति माह से होतो है, अतः मातग्य से पुत्रथैतन्य की उत्पप्ति में कोई पापा नहीं है 1 पदि पुत्रदेश में बैतन्य की उत्पति मातहगतचैतन्य से सम्भव न होती तो बैतन्य अनुमसकारणरूप में आत्मा की सिद्धि होती किन्तु अब मातबैतम्य से पुष बैतम्य की उत्पति में कोई बाधा नहीं है,सब बैतन्य के कारणरूप में अतिरिक्त भारमा की सिद्धि नहीं हो सकती।
काव्यवहितमाम से कार्यो नियम का थमीका ___ यदि यह शक की माय. "चैतन्य की उत्पत्ति सरश ही चैतम्य से होने का नियम है, अत: उत्पन्न बालक को जो इस प्रकार का चैतन्य उत्पन्न प्रोता है कि उसे माता के स्तम का दूध पीना चाहिये कि उसमें भूख की मिति और शरीर की पुषिद्ध होती है, उसकी उत्पत्ति माना केसी प्रकार के चैतम्य से मामनी होगी, और माता को या तम्य मामा के शवकाल में ही होता है, मो उसके पुत्र के अन्म के समय उसे नही है तो फिर माना के इस विध्यवहित तम्प से पुष में उक वैतम्य की उत्पत्ति कैसे होगी ।"-तो इस शाम का था उत्तर दिया जा सकता है कि कारण और कार्य में अव्यवहिन प्रताप माय का नियम नहीं है। अर्थात या नियम नहीं है कि 'कार्य के अर पहिनापूर्व में कारण के रहने पर ही कार्य की उत्पति होती है, क्योकि सुपुति के पूर्व उत्पन्न हुये शान से सुपुति के बाद जामकाल केहान की उत्पत्ति होती है, व उक निधम माना आपगा तो या उत्पत्ति भी न हो सकेगी, क्योंकि सुषुप्ति के पूर्वकाल में उत्पन्न मान उसो समय समान हो जाने से मुषुप्ति के बाद डाएन होगे याले बाग के शव्यजिसपूर्ष में नहीं रहता।
[विलक्षण भावों में कार्यकारणभाव नहीं होने की शंका का परिहार] 'पुन का चैतम्य माता के चैतन्य से बिलक्षण होता है, यह उनके भनेक विलक्षण घ्य हार से सि , अतः जन चैतन्यो में कार्यकारणभाष नहीं हो सकता, क्योंकि विलक्षण पपाथों में कार्यकारणभाव अमान्य है।'-यह शंका करना उचित नहीं है, क्योकि वृश्चिक से वृश्चिक की उत्पत्ति के समान वर्षा के समय सो गोमय से भी वृधिक की उत्पनि होती है। कार्य के प्रति विलक्षणावार्थ का कारण होना बैतम्धभिन्नकापी तक ही सीमित नहीं अपितु चैतन्यका कार्य के प्रति भी माता के शोणित, पिता केशक, विपर्यायशेप का अभ्यास, रलायन भावि के सेवन से विलक्षण पयायों को कारण मानने में कोई पिरोष नहीं देखा माता, असा विलक्षण पदार्थों में कार्यकारण