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शास्त्रवासियब-तबा मो न च विशिष्टाणुत्सित्यमेव तस्य न्याय्यर, अमेकाश्रयकल्पनात एकाभयकल्पने लाघषात्, शरीरयषटकर्सयोगस्यैवात्मत्वपटकत्वेनात्मत्वारोरत्तयोस्तुन्यवित्तिवेधस्वप्रसङ्गारन । आत्मत्यघटकसंगोगस्य भिन्नाले स्वास्मन एत्र भिन्न किमिति इन्द्र । रोषयेः ' इति किमतिविस्तरेण । ___ परः शकते ननु पैतन्ये तरभावः प्राणधर्मानुविधा गिल्वाभावा, कथम् ? 'ब' गति विसके । 'हमशनीयायान् अई पिपासावान' इत्यवानीयापिपासयो। प्राणधर्मयोरायशाभकाल में भी उसके सम्म छोने से जायकाल में भी कामादि की अनुत्पति की भापति होगी, तो इस प्रकार जब महरूपरिपाक का एरणमहग श्रावक की तब उसी से सूपुति आदि के सममानानुत्पत्ति का निर्वाध हो जाने से विजानीयममा संपोग की कलामा निरर्थक है। जिस प्रमाण में अरूप धी की सिद्धि होती। उसी प्रमाण से उसका भीयान्मवृतिरूप धर्म भी सिम होता है। अतः गरम के प्राय के विषय में कोई यियार नाही या हो सकता ! और आत्मनिष्ठ अरष्ट का आश्रय लेने पर तो नास्तिकमन का आमूलचूल पम्मूलम हो जाता है।
|म को श त मानने में गौरव ___E के सम्बन्ध में नास्तिक के उन मन है. विरोध में मामिल का या XIAL है कि पहए को शरीरनिष्ठ मानना उचित नहीं है, क्योंकि बिभातीयसयोगाषेशिम मणुषों का समूहाय ही शरीर, अस! भार को शारीनिष्ठ मानने पर उसके अणु. रुप नेक शाश्रय मामने होंगे। अतः उसकी अपेक्षा अनिरिसा आत्माका एक शानये की कल्पना हो लाधव से उचित है । शारीर को आत्मा मानने में दूसरा दोष यह कि विजातीय योगविशिष्ट अणुसमूहवरूप शरोरत्य की कृशि में प्रविष्ट संयोग की मात्मभ्य का भी घटक है, क्योंकि पानावि का श्राश्रयभून विजातीयसंयोगविशिष्ट अणु: सभूतत्व ही देहात्मयाच मारमावी. अतः शरीरस्प और भारमाय दोनो तुम्यचिनिषेध पकबीहानसामग्री से प्रायोगे, फलनः एक व्यक्ति के शरीर का प्राध्यक्ष से शरीर केप में होता है. उसी प्रकार आत्मा के रूप में भी उसका प्रत्यक्ष ने ले उसको ज्ञानादि गुणों के भी प्रत्यक्ष की मापति बोगो । यदि यह कहें कि-"मारमम्पपटक संयोग शरीरावधनकसंयोग में मिन्न, अतः हारीरथ भोर आमय में तुन्यविन्ति बेपता की मापनि नही हो सकती,''--तो यह ठीक नहीं है, प्योंकि आत्मघटकसंग को भिन्न मान करः शरीरस्य मौर भात्मत्व में से करना है तो फिर आत्मा की घरोर भिन्न पापों न मान लिया माय । पेमा मानने में बहारमपावों को अधिकाकों उचिसकारण नहीं प्रतीत होता, माता इस विषय का और पिस्तार फरमा अनावश्यक।
[माग । आत्मा -पूर्वप] मास्तिक की ओर से पुनः या शङ्का होती है कि"-चैतम्य प्राणधर्म का अनुषिपान मही करता, यह बात जो कमी गयी, उसका क्या धाधार है ? विचार करने पर उसका कोई आधार नहीं लिसहोता, मायुत उसके विपरीत बाते सामने बीतीओ'म मघनीमाधान मुझे भूख है' 'माम पिसाबार-मुखे प्यासच प्रकार भूप्यासकर माराधर्मा का भावार्थ मरमा में अनुभव ता, निक्षसे अस की