SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८५ स्था क टीका पनि अभ मीचनयत्नमरादेव सदा श्वासप्रश्वासादिसन्तानः, तन्नाशश्च प्रारब्धाsereनाशादेश, शति तदन्यनाशे विजानीयमन संयोगनाशो हेतुरिति चेत ? न, एवं सत्यावश्यकस्वास सर्वचाटनाशादेव शानादिनाशाभ्युपगौचिन्यात् । अत पर विजातीयमन:संयोगेऽपि न मानमस्ति, अष्टविशेपपरिपाकवशादेव मुगुप्स्यादिफाले सानानुत्पादाद, परेणापि मनसो निरिन्द्रियप्रदेशगमने नम्य धरणीकरणीयत्वात् । श्रष्टं च धमिग्राहकभानेन प्रत्यगात्मनिष्टमेव सिमिनि एतो नास्तिकः। है, फिर भी काम की उत्पत्ति नहीं होती अतः विशातीयमनासयोगाभाष मे भिग्न ही किसी को प्रसन्यानुम्पनि का प्रयोजक मानना मावश्यक है। सितिमिन्त दशा में विनाताश्गमासयोगहेतृत। की अनुपपत] यह कहा जा सकता है कि-"सुषुमि के समय भ्यास-प्रश्वास का प्रवाह पीयनयोनि परन से सम्पादित होता उसके लिये उस समय विमानोयमनःर्मयोग की ससा मामना मावश्यक नहीं है जीवनयोनियान प्रारब्ध- आमए से उनान्न भोता है, अतः उस अहद का नाश होने पर ज.वनयोनियन की उत्पत्ति नहीं होती । इस प्रकार प्रारम्ब-- मडा का समाय तो नोयनयोनियन की अनुमति का प्रयोग है, और विजातीयममा संयोग का प्रभाव जीवनयोनियन से भिन्न गाज्मा के विशेषगुणों की गनुत्पत्ति का प्रयोजन है। इस लिये उपादानकारण आत्मा के नित्य होने पर भी विजातीयमनासयोग के अभाव से पैतन्य की अनुत्पत्ति का निर्धाद सम्भव हाने से चैतन्योत्पत्ति के अधिगम की आपत्ति नहीं हो सकती" किन्तु इसका उत्सर या हो सकता है कि जब जीवनयोमियरन की भन्नुत्पत्ति का प्रयोजक प्रारब्ध हारष्ट के प्रभाष को मानना ही है, तब आत्मा के अन्य विशेष गुणों की अनुपनि के प्रति भी भष्टविशेष के शभाय को भी प्रायोजक मान लेना अषित है, जीवनया नियत्न की अनुमत्ति और गन्य शामिविशोषमुणों की अनुपसि के लिये प्रयोजकमेव की फस्पना उचित नहीं है। हानादि की अनुगम में यितातीयममासंयोगाभाष को प्रयोजक मानने में मय से वो बाधा गरेकि विज्ञानीयमनासयोग में हो कोई प्रमाण नहीं है। क्योकि सुषुति स्मादि के समय भानादि की अनुत्पत्ति के निहाय ही बागादि * कारणरूप में घिजातीयमनासयोग की पनपना की जाती है, किन्तु उसकी कोई भाषषयकता नहीं है. क्योंकि जिस आरए के परिपाक से सुपुति मावि अस्थाये समान होती है, उम्म अष्ट का परिपाक ही मानादि की उत्पत्तिका प्रतिवन्धक हो जायगा, पस लिये जानाविले कारणरूप में सुपुति आदि के समय मसम्भवरलताक घिमातीयममःपयोग की कल्पना निराधार होने से विजातीयमन:संयोग के प्रभाव से शानानि का अनुर्पानका उपपावन असंगत है। जो लोग विजातीय मनसंयोग बानादि का कारण मान कर उस के शभाष से कामादि की अनुत्ति का सामर्थन करना चाहते है उन्हें मी निरित्रिय प्रदेश में मनोगमन के सम्पादनार्थ महर की शरण लेनी पती है, अन्यथा मन यदि निरिन्द्रिय प्रदेश में न जायगा तो मुशि मावि के ममय बिमानीयमनम्सयोग का अभाव हो क्यों होगा, और यदि मरमविशेष के परिपाक को अपेक्षा किये बिना ही निनिस्ट्रिय प्रदेश में मनोगमन माना प्रायगा, तो
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy