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________________ शास्त्रवासिमुच्चय विषयों का अनुसन्धान तथा शन और अर्थ के रूप में उस विषय उल्लेख होता है, तो वह भावना 'सषितर्क' समाधि कही जाती है, क्यों कि वह चित्त के सविकल्पक स्थूल आभोगरूप वितर्क से युक्त होती है। निर्वितर्क --जिस विषय में सवितर्क समाधि सम्पन्न हो चुकी है उसी विषय की जय निर्विकल्पकवृत्तिरुप भावना की जाती है, जिसमें शम और अर्थकी स्मृति का विलय हो जाता है तथा जो पूर्वापर के अनुसन्धान एवं शब्दार्थ के उल्लेख से शून्य होती है सब यह भावना निर्वितर्क' समाधि शब्द से व्यवहत की जाती है, क्योंकि वह उक्त वितर्क से शून्य होती है। ___ सविचार-उक्त सूक्ष्म विषयों में किसी पक के सम्बन्ध में जब ऐसी सधिकरूपक वृत्तिरूप भावना की जाय जिसमें उस विषय के साथ देश, काल और विभिन्न अवस्थारूप धर्मों का सम्बन्ध भासित हो तब वह भाषना 'सविचार' समाधि शब्द से ध्यपदिष्ट होती है, क्यों कि वह घिसके सविकल्पकसूक्ष्मभाभोगरूप विचार से युक्त होती है। निर्विचार-जिस विषय में सविचार समाधि सम्पन्न हो जाय, उसी विषय की जब पेसी भावना हो जिसमें देश, काल. अवस्थाओं का भान न हो, केवल धर्मी मात्र का भान हो, तब उसे 'निविचार' समाघि कहा जाता है, क्योंकि वह निर्विकल्पक होने के कारण उक्त विचार से शभ्य होती है। सम्पहात समाधि के दो मेद और बताये गये हैं उनके नाम है 'सानन्द और सास्मित । उक्त चारों से इनका भेद यह है कि उक्त चार समाधियां 'ग्राहा' पदार्थों को विषय करती हैं. और ये दोनों क्रम से 'ग्रहण'-झानलाधन अन्तःकरण को तथा 'ग्रहीता' पुरुष को विषय करती हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं सानन्द सम्प्रज्ञात- अन्तःकरणा सत्त्व, रजः और तम इन तीन गुणों को समष्टि रूप प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण त्रिगुणात्मक है। इस अन्तःकरण को विषय बना कर जब ऐसी भावना की जाय जिसमें उसके रज और तम अंश का अत्यन्त गौणरूप से तथा सत्व अश का प्रधान रूप से भान हो तो यह भावना 'सानन्द' सम्भशात समाधि कही जाती है, क्योंकि सुखात्मक 'सत्व' के स्फुरणरूप आनन्द से वह युक्त होती है। इस समाधि की अवस्थामें स्थित योगी 'विदेह कहे जाते हैं, इस समाधि की अवस्था में प्रकृति और पुरुष से भिन्न तत्त्वका दर्शन नहीं होता। सास्मित सम्प्रज्ञात-जब अन्तःकरण के रज और तम से असम्पृक्त शुद्ध सत्त्व को विषय कर ऐसी भाषमा की जाय जिसमें शुद्ध सस्व भी गौणरूप से भासित हो, प्रधानरुप से पुरुषसपा चिति शक्ति का ही भान हो तो वह भावना 'सास्मित' सम्प्रशात समाधि कही जाती है, क्योंकि वह शुद्धसत्त्व से अभिन्नरूप में पुरुष के स्फुरणाप 'अस्मिता' से युक्त होती है इस समाधि में स्थित योगी को 'पर पुरुष' का दर्शन होता है । इस समाधि में रश्यमान पुरुष को 'पर' इस लिये कहा जाता है कि इसमें यह शुद्ध सख के साथ एकीभूत हो कर गृहीत होता है। १. अन्य पात• १ पाद का १७ वां सूत्र और उसका व्यासभाष्य ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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