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________________ २०६ शास्त्रात समुच्चय- स्तवक १०७ अथ तमसो अन्यत्वे स्पर्शश्चयवारभ्यत्वं रूपादिति चेत न, तमसः स्पर्शबदपवारभ्यत्व) स्पेष्टत्वाद वक्त्याख्यस्यातिशयस्यैव द्रव्यजनकत्वाच्च । त्वयाऽपि च न स्पर्शवत्वेन जनकत्वं कल्पयितुं शक्यम्, अन्त्यावयविनि व्यभिचारात् । न चानन्स्थाचयवत्वमपि निवेशनीयं तस्य द्रव्यसमवायिकारणत्वपर्यवसितत्वात् । न च मन्यद्रव्यस्वानं प्रति (वष्यानारम्मक ) द्रव्यत्वेन प्रतिबन्धकत्वादन्त्यावयविनि द्रव्यानु स्प दोष इति वाच्यम्, तथापि नरादिष्वनुद्भूतस्पर्शानिभ्युपगमात् तहेतुत्वात् न च द्रव्यारम्भकत्वाभ्ययानुपपस्यैव तत्रानुद्भूतस्पर्शाङ्गोकार इति वश्यः अनन्ताजुदभूत स्पर्श कल्पनामपेक्ष्य लघुभूतेक तिकल्पनाया एवोचितत्वात् । www.n -- को समवायिकारण मानना मावश्यक है । किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है, क्योंकि विजातीयसेन। संयोगात्मक विजातीयनीरूप का हो कारण होता है. नील-सामान्य का कारण नहीं होता, अतः उससे तत्र आदि में कल के कां आपति हो सकती है तो उसका परिहार तरे विजातीयनील के प्रति पृथित्री को कारण मान लेने से ही हो सकता है. इस लिये उसके अनुरोध से नोलसामान्य के प्रति पृथिवी की कारणता नहीं सिद्ध हो सकती । अतः म्यार में पृथिवीत्व न होने से उस में पृथिवीजन्य विजातीयनील का ही अभाव हो सकता है, गोलसामान्य का अभाव नहीं हो सकता: और न नालसामान्य से उसमें पृथिवीश्व की आपत्तिही हो सकती क्योंकि सामान्य के प्रति थियो कारण ही नहीं है। यदि कहें कि "अल शादि में शक से विज्ञातीय नीलरूप की उत्पति का परिवार जैसे विजातीय नील के प्रति पृथिवी को कारण मानने से भी हो सकता है, वैसे नीलसामान्य के प्रति पृथिवी को कारण मानने से भी हो सकता है, अतः विनिगमनाविरह से नीलसामान्य के प्रति भी पृथिवी की कारणता सिद्ध होगी" तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि विज्ञातीय नीलस्य व्याण्यधर्म है और भील व्यापकधर्म है | अतः अथ व्याप्यधमन के प्रति पृथिवी को कारण मानने से भो सिद्धि हो सकती है, तब व्यापक धर्मा म के प्रति व अन्यथासिद्ध हो आएगा। कहने का आशय यह है कि से ध्यायधर्म से कारणता सम्भव होने पर व्यापकधर्म से कारणता नहीं मानी जाती. पैसे व्याध्यधर्म से कार्यता सम्भव होने पर व्यापकधर्म से कार्यता भी नहीं मानी जा सकतो; क्योंकि व्यापकधर्म से करना मानने पर जैसे कार्यात्पाद में स्वरूपयोग्यतारूप कारणता की आपत्ति होती है वैसे व्यापकधर्म से कार्यता मानने पर अनु स्वाद्य में स्वरूपयोग्यतारूप कार्यता की भो आपनि हो सकती है। [ स्पर्शयुक अवयव में अति आपत्ति यदि यह आपसि श्री ज्ञाय कि अिधकार को नम्य म्रभ्य मानने पर स्पर्शवान षण्यों से उसकी मानसी होगी तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धकार को जम्प य्य मानने पर स्पर्शवान अवयवों से अभ्यन्नव्य अन्धकार की उत्पत्ति तो ही है। किन्तु अश्यकार को जन्यवृष्य मानने पर भी उता मार्ग नहीं हो सकती क्योंकि जैन सिद्धान्त में द्रव्य के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध या समवायसम्बन्ध से स्पर्शबाद
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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