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________________ स्था का दीका कि स्वरूपमात्र मेद व अविशिष्टस्वभावावन्निभेदे चाभ्युपगम्यमाने, 'भूतेतरामकः' भूवमितरयत्ति यस्तारस आत्मा- स्वरूपं यस्यैताहशो भेदः स्याद्-भूतापत्वं स्पार, 'नेदं भूतम' इति प्रतीतिसाक्षिकत्वाद भूतस्वरूपभेदस्येत्यर्थः। पत्रं च भूतान्यत्वेन परिशेषावाल्मसिद्धिरितिभाव: । 'अस्तु सहि अनायल्या भेदकान्तरम्' इत्यत्राह-अन्य भेदक भावे तु भूतातिरिक्तभेदकसरचे तु. स एव भेदकत्वेनाभिमत एन, आत्मा प्रसस्परो, समानभुजालपटेपु गगादिरिख घटादितुल्येपु शरीरादिषु सात्मकत्वेनैव विशेषात् । न व सात्मकत्वसनियतधर्माणामेव भेदकत्वम्। प्रत्येक विनिगमनाविरप्रसाद । न प सात्मकत्वेनाऽपि सर्म तत्प्रसङ्गा, अश्लतेन सम तदभावाम् । शिरूवरूप शुभभूतस्य, अतः स्वरूपमेव का अर्थ होगा भूतमेव, जो 'वं भूतंगपा भूत से भिगम' इस प्रतीति से लिख होने के कारण अपने आश्रय को भूतमात्र से मिलकर देगा, तो शारीर मादि सो भूतमात्र से मिग्न होते ही, भतः उनके स्वरूप मेन से उनमें परस्परमैन की सिद्धि न होकर मनसामान्य से भिन्म एक अतिरिक्त ही तख की सिसि हो जायगी, गो परिशेषात् आत्मा कहा जायगा। यदि य को कि भारीर, घट गावि में स्वरूपमात्र से मेन मानने में यदि यह पोपतो उनके प्रत्यक्षसिमेव की उपपत्ति के लिये अगत्या किसी भूतभिन्न ही मेदक की कल्पना कर लेनी चाहिये"--तो यह कयन चार्वाक के मनुफक नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर में मटादि मेद के जमावना जो भूत भिग्न मेहक माना जायगा, वही मारमा हो जायगा । इस बात को पटके स्टान्त से समझा जा सकता है, किसी म्पान में बहुत से पट रखे हैं, सभी गुमल होने से समान हैं। उनमें से जब किसी पट को अन्य पठा से पपर करना होता है तो उसे रंग दिया जाता है. 'पा रंगाइमा पट अपने रंग से भय पलों से पृथक हो जाता है। उसी प्रकार शरीर घट आदि सभी संघात भूत उप में समान , खममें शरीर को अन्यभूनसंघाती से पृथक् करना, मनः बसे सात्मक-मामा से युक्त मान लेना चाहिये, इस सात्मकता से ही पब घट मादिभिCIREभूतों से पूषा हो आया । [शरीरगत धर्म से घटादिभूतों का मेद नहीं हो सकता] यदि कई कि-"शारीर में सामकाव के समनियत अन्य भो धर्म है जैसे सेन्द्रियत्व, समाणा मादि, फिर उन्ही धर्मों द्वारा घर गादि से शरीर का पार्थक्य हो जायमा, भता शरीर में सात्मकत्व की कल्पना सनाबश्यक " तो यह टीकमी. पोलि सात्मकत्व * समनियत धर्म भनेक है, उनमें से किसे मेवक माना जाय और किसे. माना जाप, इसमें कोई विनिगमना-किसी एक के ही अनुकूल कोई मुक्ति न होने से सभी धो को मेरा मानना पडेगा । अतः इस गुरुकवाना की अपेक्षा या कल्पना ती मच्छी है कि पारीर लाग्मक होता है. और षा सात्मकत्व भी पारीर को पदावि मिन्न करता है। यदि यह कई कि-"यह प्रश्न सो सामान्य के सम्बन्ध में भी ऊठ सफवा है कि क्या सामस्व को घठादि से शरीर का भेवक माना जाच, पा उसके
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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