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________________ शास्त्रपातसमुन्द्रयस्त७७ 'तमसि पत्र नाभिष्यज्यमानः शीतस्पर्शोऽप्यनुभूयत एव अत उद्भूत स्पर्शषमपि तत्र' इति साम्प्रदायिकाः । २०४ नीलरूपनं प्रति पृथिवीत्वेम हेतुचादिति चेत् न मम स्वभारविशेषस्यैव नीष्ठनियामकत्वात् । स्पार्क में उद्भूत स्पर्शभाव के प्रतिबन्धक न हो सकने से महत्त्वविदोवामा पक विशेषाभाव आदि अनेकों में विनिगमनाविरहवश उसके स्पार्शन को प्रतिबन्धकता मानना होगा जो पक्ष गौरवग्रस्त कल्पना होगी । प्राय होते ही वास्तविकात सां यह है कि कई पदार्थ ऐसे है जो त्वमिन्द्रिय नहीं। जैसे घट के साथ प्रभा का संयोग इस संयोग के आश्रय घट का स क्षेत्र है, यतः उसमें महत्त्वविशेष और उद्भूता दोनों भाग्य है, फिर भी इसमें भाभित प्रभासंयोग का स्थादर्शनप्रत्यक्ष नहीं होता। स्पष्ट है कि उसमें तिन्द्रिय से गृहीत होने की योग्यता ही नहीं है। यह अन्य चाल है कि जातिवादी उसमें एक विशेष जति मान कर विषयासम्वन्ध से मनप्रत्यक्ष के प्रति मानिमत् को तादात्म्यसम्बन्ध से प्रतिबन्धक मानकर उसे जात्या स्वगिन्द्रिय से अमात्य कहे और सिद्धान्ती जैम जाति के स्थान में स्वभाव मान कर स्वभावतः उसे त्वमिस्त्रिय से अप्राहर कहूँ । तो जैसे प्रभाघटसंयोग जान्या अथवा स्वभावतः स्वगिन्द्रिय से अन्नाहा है अतः उसके आय में भविशेष और उद्यूत्तस्पर्श के होते हुये भी उसका प्रत्यक्ष नहीं होता, उसी मकार नीलिव्य का सरे भी जात्या अथवा स्वभावतः व्यगिन्द्रिय से मया होने के कारण साईनिराश का नहीं होता, इस लिये उसके स्पार्शन के प्रति उद्भूत पाव में प्रतिबन्धकत्व की कल्पना अनावश्यक है यह इतना विशेष है कि पंकालेन अतिरिक्त अति व उसका समषाय सन्मतितर्क आदि अन्य में निरस्त किये गये है अब कि स्वभाव मेदसम्बन्ध से अनेकान्तमत में प्रमाण से अवाध्य है । जैन सम्प्रदायों का कहना है कि पवन से अन्धकार में शीतस्पर्श की अभि व्यक्ति होती है। यद अनुभव सिद्ध है, इस लिये लोग गर्मी के दिनों में खिडकियों और दरवाजे यन्त्र कर तथा गर्मी का रातों में दीप बुझा कर कमरों में अधेरा करते हैं । 'गर्मी के डर से ऐसा किया आता है, न कि शांतस्पर्श के लाभ की भाशा से पेला किया जाता है, यह कहना ठीक नहीं है. क्योंकि अधेरा हो जाने पर या बलाने पर शीतस्पर्श का अनुभव भी होता है, अतः 'अन्धकार में उदभूत शादी की सभा निर्विषाव होने से अन्धकार में उद्भूतरूप का भास्तित्व स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । [ अन्धकार में प्राथवत्व को आपरांत को शङ्का ] यत्रि यह शङ्का की जाय कि "अधकार में नीलरूप मानने पर उसमें पृथिवीत्व की आपति होगी, क्योंकि समवायसम्बन्ध से नीरूप के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से पृथिवी कारण होती है, मतुः यदि अन्धकार में पृथिवत् तू होगा तो उसमें नीलरूप की उत्पत्ति हो न हो सकेगी- "तो का उत्तर यह है कि सिद्धान्ती जैन के मत में स्वभावविशेष ही विशिष्टनी का नियामक होता है। वह स्वभावविशेष जैसे पृथिवी में होता है वैसे अन्धकार में भी होता है। अतः अन्धकार को पृथिवो माने बिना भी स्वभावविशेष से
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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