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________________ ११३ Ly-- स्था का टीका व हि. वि. न चासौ-विशिष्टपरिणामः भूतभिन्नो-भूतातिरिक्तः, यद्-यस्माद्धतोः, ततः सदासर्वकालं, व्यक्तिः चेवनासाक्षात्कारो भवेत, भूताऽभिन्नविशिष्टपरिणामस्य यावद्भूतकालभावित्वात् । भेदे तु भूतेभ्यो विशिष्टपरिणामस्याऽभ्युपगम्यमाने, अधिकभावेनचतुष्टयबहिर्भावेन, तत्वसंख्या न युज्यते, 'चत्वार्येव तत्वानि' इति विभागण्याघातः स्यात् ॥३८॥ अन पराभिप्रायमाऽऽशय परिहारमाह 'स्वकाले' इतिमूलम्-स्वकालेऽभिन्न इत्येतत्कालाभावे न सङ्गतम् । लोकसिद्धाश्रये स्वारमा हन्त । नाश्रीयते कथम् ! ॥३९।। स्वकाले परिणामकाले, म भन्नः -पदार्थः, ततो न तत्त्वसंख्याव्याघातः । न (कामाकारपरिणाम चेतना का व्यञ्जक नहीं है।) भूतों के कायाकारविशिष्टपरिणाम अर्थात् शरीरात्मकर्सघात को भी चेतना का ज्यम्जक नहीं माना जा सकता, क्योंकि भूनचैतनिक के मत में शरीरात्मकसंघात अपने घटक धिमी भावि भूतों से मिम नहीं माना जाता, अतः उसे यदि चेतना का मजक माना जायगा तो उसके घटक पृथिवोभादि भूत ही चेतना के व्यजक होंगे, और उस दशा में शरीरात्मकसंघात के पूर्व प्रत्येक भूतदशा में भो चेतना के साक्षात्कार की आपत्ति होगी। इस प्रकार जिस काल से लेकर जिस काल तक भूतों का अस्तित्व रहेगा उस पूरे काल में बेतना के साक्षात्कार की धापत्ति होगी, क्योंकि भूतों का कायास्मकपरिणाम भूतों से अभिग्न होने के कारण भूतों के सम्पूर्ण अस्तित्वकाल में भूतात्मना विद्यमान रहेगा। इस दोष के परिहारार्थ-यदि कायाकारपरिणाम को पृथिवी आदि भूतों से भिन्न माना जायगा, तो भूतों के कायात्मकपरिणाम को भूतों से अतिरिक्ततत्व के रूप में स्वीकार करने पर पृथिवी आदि तत्वचतुष्टयवाद के सिद्धान्त को धूलिसात् कर देमा होगा, जो भूतधैतनिक को कथमपि मान्य नहीं हो सकता। अतः भूतों के कायात्मक परिणाम को चेतना का व्यम्जक मानना सम्भव नहीं है ||३|| ३९वीं कारिका में कायाकार भूतसंघात को खेतना का व्यजक मानने पर पूर्वकारिका में बताये गये घोष के अन्यसम्मतपरिहार को असात बताया जा रहा है (कालभेद से भिन्नभिन्नपरिणाम काल के अभाव में असंगत है) कतिपय विद्वानों का इस विषय में यह कहना है कि-"भूतों के कायाकारपरिणाम को बेतना का ज्याक मानने पर पूर्वकारिका में बताये गये वोष का तभी सम्भव है, जब उक्तपरिणाम को भूतों से सर्ववाभिन्न अथवा सर्वदाभिन्न माना जाय । किन्तु यदि उक्तपरिणाम और भूतों को उक्तपरिणाम के अस्तित्वकाल में परस्पर मभिन्न, और उक्तपरिणाम के अभावकाल में उन्हें परस्पर भिन्न मामा जाय, तो उक्त दोष नहीं हो सकते, क्योंकि काथाकारपरिणाम को जब भूतों से भिन्न नहीं शा. बा. १५
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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