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शास्त्रवातासमुच्चय-स्तबक १ लो० ९९ अस्तु सहि अजन्यवादृष्टरूपा शक्तिी, इत्पन्याहमृलम्-- अस्स्येव सा सदा किन्तु क्रिया व्यभ्यते परम् ।
भास्ममात्रस्थिताया न तस्या व्यक्तिः कदाचन ।।९९|| सा = भष्टरूपा पानिा, सदाऽस्त्येव, किंत परं -- केवलं, किराया - मुपायदानादिफया, न्यज्यने = फलप्रशानयोग्या क्रियते 'न तु जन्यने इति 'परम्' इत्यनेन स्पष्टीक्रियते । वारय, यत आत्ममात्रस्थिताय - अनापने कस्वरूपव्यवस्थिताया तस्याः = पाक्तः न = नैव, व्यक्तिः = आवरणनित्तिरूपा, कदाचन-मातुचिन् ॥१९॥ कथम् । इत्या:-- मूलम् ---सदन्यावरणाभाबा भावे वाऽस्यै कर्मता 1
तन्निराकरणार व्यक्तिरिति तदसरिधांतः ॥१०॥ तस्याः शक्तन्यस्यावरणस्याभावान-अनायतायाः शक्तरावरण मेव नास्ति, कितर्षि क्रियया तब निवर्तनीयम्, असतो नित्यनियुत्तत्वात ? तथा च का नामऽऽवरण निवृत्तिरूपा व्यक्तिस्तक क्रियया क्रियताम् ? इत्याशयः । उमथ यदि 'शाश्वत्यास्तस्याः सकतेः कार्यातरं प्रत्यनायुतत्येऽपि प्रातफलप्रदानाभिमुख्याभावात् तत्रातत्वमि स्यनरतीय स्वीकि
[सुपात्रागादि से व्यङ्गय शाश्मन शक्ति के अभ्युपगम में दोष | 'भरट के स्थान में अभिषिका की जानेवाली कक्ति किया से पैदा नहीं होती किन्तु बकना में समा विषमान रहता है- प्रस्तुत कारिका १५९) में इस कपल का निराकरण किया गया है, अर्थ इस प्रकार है--
यह कहा । गहना है कि- "अपस्थानीया शक्ति का में सर्वदा रहती है, सुपार पान मानि क्रिया यों से केवल उसकी भमियक्ति होनी है, उसमें क्रिया का फल देने की योग्यता मात्र उन्मीलिन होती है, किया से उसका काम्म मह होता"- किन्तु वह कहना ठीक नही है क्योकि शक्ति यदि आवरणाहीन आश्मा के रूप में दी अपस्थित मानी नापणी तो निया से उसकी प्रभिव्यक्ति न हो लगी। क्योंकि प्राघरपानिवृति काही माम भिव्यक्ति है और यद गाारण ननिमारनामक प्राधरणदीनता शक्ति में पहले से दी सिद्ध है।
शक के दामारफरूप में गी अतिरिक्त अट को Folor] पाक्ति को अनावृत आत्मा के भर में अवस्थित मामने पर उसकी अभिव्यक्ति पयों नहीं हो सकती ! प्रस्तुत कारिका (१००) में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है.-
शकत जब अवामृत शात्मा-रूप होगी तो उस का कोई भावरण न होने से किया द्वारा किम की मिनि दरमा । आवरण असत होने पर तो नित्य ही निवृत्त रहेगा, तो फिर किंया से मारननिरूपा भिव्यक्ति कैसे होगी । और यदि आपे भाग में युधा और आध माग में पृत किसी कम्पित व्यक्ति के समान यह माना जाय कि