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________________ २० शा० वा० समुचय समास ग्रन्थ में असमाप्तता के व्यवहार की आत्त होगी । चरमवर्णध्वंस को समाप्त मानने पर उक्त आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि ध्वंस का विनाश न होने से समाप्ति का कभी अभाव नहीं हो सकता । समाप्ति के प्रति मंगल की कारणता -- समाप्ति के प्रति मंगल को कई प्रकार से कारण माना जा सकता है, ( १ ) ग्रन्थकर्त्ता को समाप्ति का उत्पत्तिस्थल मान कर इस पक्ष में कार्य का सम्बन्ध होगा 'स्वम तियोगिचरमवर्णानुकृष्टकृतिमत्व' | स्व का अर्थ है चरमवर्णध्वंस, उसका प्रतियोगी है चरमवर्ण, उसको सम्पन्न करने वाली कृति ( प्रयत्न) मन्थकता में कारण का सम्बन्ध होगा 'रत्रानुकूलकृतिमत्व' | स्व का अर्थ है मङ्गल, उसको सम्पन्न करने वाली कृति है ग्रन्थकर्त्ता में । ( २ ) ग्रन्थकर्त्ता के शरीर को समाप्ति का उत्पत्तिस्थल मानकर । इस पक्ष में कार्य का सम्बन्ध होगा स्वप्रतियोगिचरमवर्णानुकूलकृत्यवच्छेदकता' । 'स्व' है चरमवर्णध्वंस, उसका प्रतियोगी है चरमवर्ण, उसके अनुकूलकृति का अवच्छेदक है ग्रन्थकर्ता का शरीर, क्वांकि शरीररूप अवच्छेदक से अवच्छिर आत्मा में ह्रीं कृति आदि की उत्पत्ति होती है । कारण का सम्बन्ध है 'स्वानुकूलकृतिसमानाधिकरणादृष्टजन्यत्व' | 'स्व' है मंगल, उसके अनुकूलकृति का समानाधिकरण अदृष्ट है मंगलकर्त्ता का अदृष्ट, उससे जन्य है मङ्गलकर्त्ता अन्धकार का शरीर । ( ३ ) ग्रन्थ को -- ग्रन्थ के चरमवर्ण को समाप्ति का उत्पत्तिस्थल मानकर इस पक्ष में कार्य का सम्बन्ध है 'चरमवर्णनिष्टप्रतियोगिता' और कारण का सम्बन्ध है 'स्वसमानकर्तृकत्व' । मङ्गल और चरमवर्ण का कर्त्ता एक होने से चरमवर्ण के साथ मङ्गल का स्वसमानकर्तृकत्व सम्बन्ध निर्विवाद है। इस सम्बन्ध से पूर्ववर्ती वर्षों में भी मङ्गल रहता है, पर सभाप्ति नरमवर्णनिष्ठप्रतियोगिता सम्बन्ध से उनमें नहीं रहती, एतावता तृतीय पक्ष के कार्यकारणभाव में व्यभिचार की शङ्का करना उचित नहीं, क्योंकि चरमवर्णनिष्टप्रतियोगिता सम्बन्ध से समाप्ति के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से चरमवर्ण भी कारण होता है। पूर्ववर्ती वर्णों में इस कारण के न रहने से उनमें समाप्ति के एक कारण के रहने भी व्यभिचार नहीं क्योंकि कार्य की व्याप्ति कारणसमुदायरूप सामग्री में होती है, न कि एक कारणमात्र में हो सकता, ३ कादम्बरी यह एक उच्चकोटि का गद्यात्मक काव्यग्रन्थ है । इसके रचयिता है महाकवि चाण भट ( सातवीं शताब्दी) । ग्रन्थ के आरम्भ में ग्रन्थकार ने मङ्गल क्रिया है । किन्तु ग्रन्थकार द्वारा उसकी समाप्ति नहीं हुई है । ग्रन्थ के पूर्वार्द्ध की रचना के बाद ही ग्रन्थकार की मृत्यु हो गई । अतः ग्रन्थ के शेषभाग की पूर्ति उनके पुत्र भूषणभट्ट ने की। ४ नास्तिक-पुण्य, पाप, पुनर्जन्म आदि में जिसका विश्वास नहीं होता उसे नास्तिक कहा जाता है । ऐसे पुरुष ष्ट पदार्थ को ही किसी कार्य का कारण या क मानते हैं । महल से किसी कारण का सम्पादन अथवा दृष्टाधक का निवारण नहीं होता, अतः वे अपने ग्रन्थों में मङ्गल नहीं करते, फिर भी उनके ग्रन्थों की समाप्ति होती है । पूर्वकाल में ऐसे अन्य चार्वाक और उसके अनुयायी विद्वानों के होते थे, वर्तमान में समाजबादी, मार्क्सवादी, नक्सलवादी आदि ग्रन्थकारों के अनगिनत ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । १९ अन्वयतः और व्यतिरेकतः - अन्वय का अर्थ है सम्बन्ध सद्भाव; और व्यतिरेक का अर्थ है अभाव । कतिपय स्थानों में दो भावात्मक वस्तुओं के अन्वय- सद्भाब - महचार को देख कर जो व्यासि
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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