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शास्त्रवातसमुच्चय- स्तबक १ श्लो० ४३ अध्यक्षसिद्धितः 'कठिना पृथिवी, अचेतना पृथिवी' इत्यादिसत्यप्रत्यक्षविषयत्वात् । चैतन्यपाऽचाक्षुषत्वात् तदभावो यद्यपि न चाक्षुषः, तथाप्युपनयजन्यं मानसं तदध्यक्ष ग्राम् । चेतना तु तद्रूपा न - काठिन्याबोधसामानाधिकरण्येन प्रमीयमाणा न, अतः सा चेतना, तत्फलं भृतोपादेया, कथं भवेत ? न कथञ्चिदित्यर्थः ।
अजायत एव 'स्थूलोऽहम् गौरोऽहम्' इतिवत् 'कटिनोऽहम्' इत्यपि प्रतीतिः, प्रतीयत एव च जाड्यमपि 'मामहं न जानामि' इत्यादिना इति किमापादितम् । इति 'चेत् ? न, 'कठिनोऽहम्' इत्यादि प्रतीतेर्भ्रमत्वात् इदन्त्वसामानाधिकरण्येनाऽनुभूयमानस्य काठिन्यादेरहेत्व सामानाधिकरण्याऽयोगाच्च, इत्युपरिष्टाद्विवेचयिष्यते । 'मामहं न जानामि' इति प्रतीतिश्च विशेषज्ञानाभावविषया न तु ज्ञानासामान्याभावविषया : भावरूपाऽज्ञान विषया वा ज्ञानाऽज्ञानयोर्विरोधान् भावरूपाऽज्ञानस्यान्यत्र निरस्तत्वाच्चेतिदिक् ||४३|| [ चेतना भूतों का कार्य भी नहीं हो सकती ]
काठिन्य का अर्थ है कठिनस्पर्श, यह केवल पृथिवी में रहता है, वह रस आदि का भी उपलक्षण बोधक है, अबोध का अर्थ है अचेतनता, ये धर्म पृथिवो आदि भूर्ती में आश्रित है, यह बात प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध है, क्योंकि कठिनता, अचेतनता आदि धर्म 'पृथिवी कठिन होती है, पृथिवी अवेतन होती है' इन सत्य प्रत्यक्षों के विषय है । चेतनता आत्मा या बुद्धि का धर्म होने से चाक्षुष नहीं है, अतः उसका अभाव अचेतनता भी हालाँकि खाप नहीं हो सकती, क्योंकि 'जो भाव जिस इन्द्रिय से प्राथ होता है। उसका अभाव भी उसी इन्द्रिय से ग्राह्य होता है' यह नियम है, तो भी उपनय अर्थात् ज्ञानलक्षणसन्निकर्ष से पृथिवी में उसका भी मानसप्रत्यक्ष हो सकता है। 'पृथिवी अवेतन होती है' इस ज्ञान को जो प्रत्यक्ष कहा गया है यह इस उपनयाधीन मानसप्रत्यक्ष की ही दृष्टि से कहा गया है।
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चेतना काठिन्य और अचेतनता के समानाधिकरणधर्म के रूपमें प्रमाणद्वारा गृहीत नहीं होती, अतः वह भूतों का उपादेय कार्य नहीं हो सकती। यदि कठिनता, जडला और चेतना में सामानाधिकरण्य माना जायगा, तो चेतन प्राणी को 'मैं कठिन हैं, मैं अड़ हूँ इस प्रकार के अनुभव की आपत्ति होगी ।
यदि यह शंका हो कि - " चेतन प्राणी को मैं स्थूल हुँ, मैं गोरा हुँ' इस प्रकार जैसे अपनी स्थूलता और गौरता की प्रतीत होती है, वैसे ही 'मैं कठिन हुँ' इस प्रकार उसे अपनी कविता की भी प्रतीति होती है, 'मैं अपने आपको नहीं जानता' इस प्रकार मनुष्य को अपनी जडता की भी प्रतोति होती ही है, अतः कठिनता, जडता और चेतना को समानाधिकरण मानने पर मैं जड हुँ' इस प्रकार की प्रतीति का जो आपादन किया गया वह असंगत है, चूंकि वस्तुस्थिति में आपादन कैसा ?" तो उसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य को यह जो प्रतीति होती है कि 'मैं कठिन हुँ' वह भ्रम है और आपत्ति उस प्रकार की प्रमात्मक प्रतीति की दी गई है, अतः उक्त मापत्ति असंगत नहीं है । यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि 'इदन्त्य' जड पदार्थ का धर्म है, और अन्त्य