SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्था० क० टीका व हिं. वि० १३९ भूतकार्यत्वे उत्पत्तेः प्राक् सच्चाऽसत्यपक्षयोर्दोषमाह - 'प्रत्येक मि’तिमूलम् -- प्रत्येकमसती तेषु न च स्याद रेणुतैलवत् । सती चेदुपलभ्येत भिन्नरूपेषु सर्वदा ॥ ४४ ॥ I प्रत्येकमसंहतावस्थायां तेषु भूतेषु असती अविद्यमाना चेतना, न च नैव स्यात् किंवत् ? इत्याह-रेणुतैलवद= रैणो तैलवदित्यर्थः । यथा तिलेषु विद्यमानमेव तिकसंघातात् तैलमुपपद्यते, रेणुषु तु प्रागविद्यमानं तत्संघातादपि नोत्पद्यते तथा भूतेषु प्रागबिधमाना चेतना तत्संघातादपि नोत्पद्येत, तसंघातजन्यत्वस्य तत्रास्तित्वव्याप्यत्वादिति भावः । वेद-र्याद, भिन्नरूपेपु - असंहतेषु भूतेषु सती = विद्यमाना चेतनाः तदा सर्वदापलभ्येत तदुपलम्भप्रतिबन्धनिराकरणाद आपादकयाज्यादिति भावः ॥ ४४ ॥ वेतन का धर्म है अतः दन्त्व के समानाधिकरण धर्म के रूप में अनुभूत होने वाले काहिन्य आदि अहन्त्व के समानाधिकरण नहीं हो सकते, इस बातका विवेचन आगे किया जायगा । "मैं अपने आपको नहीं जानता' इस रूप में जड़ता की प्रतीति होने की जो बात कही गयी, उससे ज्ञानसामान्याभाव रूप जड़ता की प्रतीति के आपादन को भी असंगत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मैं अपने आपको नहीं जानता' यह प्रतीति ज्ञानसामान्याभाव को विषय नहीं करती किन्तु विशेषज्ञान के अभाव को विषय करती है, अर्थात् यह प्रतीति छाता को अपने विषय में विशेषज्ञान का अभाव बताती है। अथवा यह कहा जा सकता है कि उक्त प्रतोति ज्ञाता को अपने विशेषस्वरूप के भावात्मक अज्ञान को बताती है, हाँ भाषात्मक अशान का अन्यत्र खण्डन होने से इस पक्ष को अमान्य कर दिया जायगा तो ज्ञान और ज्ञानसामान्याभाव में विरोध होने से 'उक्तप्रतीति ज्ञान सामान्याभाव को विषय करती है' इस पक्ष को भी अमान्य कर 'उक्तप्रतीति विशेषज्ञानाभाष को विषय करती है' यही मानना होगा, अतः ज्ञानसामान्याभाव की प्रतीति के आपादान में कोई असंगति नहीं हो सकती ||४३|| ४४ कारिका में चेतना को भूत का कार्य मानने पर उत्पत्ति के पूर्व भूतों में चेतना के सत्य-असत्व शेनों पक्षों में दोष बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार हैप्रत्येक असंतभूत में यदि चेतना असत् होगी तो उसकी दशा रेणु-तैल जैसी होगी, कहने का आशय यह है कि जैसे प्रत्येक तिल में पहले से विद्यमान होने के कारण तिलसंबात से तेल की उत्पत्ति होती है, किन्तु रेणु धूलिकण में विद्यमान न होने से धूलिसंघात से भी तेल की उत्पति नहीं होती उसी प्रकार प्रत्येक भूत में यदि चेतना अविद्यमान होगी तो भूतों के संघात से भी उसकी उत्पत्ति न हो सकेगो, क्योंकि यह नियम है कि जो जिसके संघात से उत्पन्न होता है वह असंध की अवस्था में भी उसमें रहता है, अतः बेतना भूतों में यदि असंघातभवस्था में न रहेगी तो उनका संघात होने पर भी वह उत्पन्न न हो सकेगी। और यदि भूतों के संघात से खेतना की उत्पत्ति के उपपादनाथं प्रत्येक भूत में चेतना को विद्यमान माना जायगा तो संघात के पूर्व प्रत्येकभूत में
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy