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शास्त्रवासिमुच्चय-स्तषक १ उक्तनियमे व्यभिचारमाशङ्कते 'भसिदिति-- मूळम्-असत्स्थूल बमण्यादौ पटादो दृश्यते यथा ।
तथाऽसत्येव भूतेषु चेतनाऽपीति चेन्मतिः ॥१५॥ असद अविद्यमानं, स्थूलव-महत्वम्, मण्वादौ परमाण्वादौ, आदिना द्वयणुकग्रहः, घटादौम्घटस्य परम्परया कारणीभूते त्र्यणुके, यथा दृश्यते-चाक्षुपविषयीक्रियते; तथा भूतेषु असंहतभूतेषु, असत्येव अविद्यमानव चेतनाऽपि भवति, सामय्येव हि कार्योत्पत्तिव्याप्या, न तु तत्र तदुत्पत्तौ तत्र तदस्तित्वमपि तन्त्रम् , देशनियमस्यापि प्रागभावेन विशिष्टपरिणामेन वाऽन्यथासिद्धेः, इति चेद् मतिः परिकल्पना तब ? ॥४५॥
तत्रोच्यते-'नाऽसदितिभी चेतना की अभिव्यक्ति को आपत्ति होगी, क्योंकि अभिव्यक्ति का कोई प्रतिबन्धक है नहीं और आपादक है।
४५ यी कारिका में जो जिसके संघात से उत्पन्न होता है, वह संघात के पूर्व भी उसमें रहता है' इस नियम में व्यभिचार की शङ्का व्यक्त की जा रही है--
[अविद्यमान चेतना भी उत्पन्न हो सकती है-पूर्वपक्ष जैसे स्थूलत्व-महत्त्व परमाणु और द्रघणुक में नहीं रहता किन्तु परमाणुओं और यणुकों का जो व्यणुकरूप संघात घट का परम्परया कारण होता है उसमें देखा जाता है उसी प्रकार संघात के पूर्व भूतों में अविद्यमान भी चेतना भूतों के संघात से उत्पन्न हो सकती है। क्योंकि सामग्री कारणों की समग्रता ही कायोत्पत्ति की नियामक होती है, उत्पसियेश में उत्पत्ति के पूर्व कार्य की विद्यमानता उत्पत्ति को नियामक नहीं होती। यदि यह शक्का हो कि- "कारणों को समनता होने पर भी सभी कारणों में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु कारणधिशेष में ही कार्य की उत्पत्ति होती है, जैसे दण्ड, सक्र, धीवर, जल, कुलाल और कपाल सभी के एकत्र होने पर उत्पन्न होनेवाला घट-वण्ड, सक आदि में उत्पन्न न होकर कपाल में ही उत्पन्न होता है अतः कारणविशेष में कार्य की उत्पत्ति को नियन्त्रित करने के लिये यह नियम मानना आवश्यक है कि 'जो कार्य जिस कारण में उत्पत्ति के पूर्व रहता है, वह कार्य उसी कार में उत्पन्न होता है"- तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि-उत्पत्ति के पूर्व कार्य की सत्ता मामने पर तो उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति होती है, अतः उक्त नियम को न मान कर यह नियम मानना उचित है कि 'जिस कारण में जिस कार्य का प्रागभाव होता है उसी कारण में उस कार्य की उत्पत्ति होती है और कार्य का प्रागभाव उसके उपदानकारण में ही रहता है।' अयषा यह भी कल्पना की जा सकती है कि 'जिस कारणा में कार्यास्मना परिणत होने की योग्यता होती है उसी में कार्य को उत्पत्ति होती है, अतः उक्त नियम निराधार है॥४॥
४६ वीं कारिका में 'परमाणुओं में महत्त्व न होने पर भी उनके संघातभूत व्यगुको में महश्य की उत्पत्ति होती है' इस बात का खण्डन किया गया है जो इस प्रकार है