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________________ स्वा. ० टीका व हि. वि. उक्तः शक्तिपक्षः, अथ कार्यपक्षमधिकृत्याह 'काठिन्येति मूकम्- काठिन्याऽबोधरूपाणि भूतान्यध्यक्षसिद्धितः । __ चेतना तु न स दूपा सा कथे तत्फलं भवेत् ? ॥४३॥ काठिन्य कठिनः स्पर्शः पृथिवीमात्रवृत्तिा, इदमुपलक्षणं रसादीनाम् , अनीधो-अचतन्ये, तद्रपाणि तद्धर्मनिरूपितामताअयाणि, भूताने पनियादीनि । कुतः । इत्याहअनिवार्य है, घटमानस के प्रति वह्निमानसात्मकअनुमिति के जनक परामर्श को प्रतिबन्धक मानकर भी इस धापत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस रीति से आपत्ति का परिहार करने पर घट, पट, मठ, दण्ड मादि मनन्तपदार्थों के मानस के प्रति बलथनुमिति के जनक परामर्श को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक होने से अनन्त प्रतियध्यप्रतिबन्धकमाव की गौरवपूर्ण कल्पना करनी होगी। दूसरी बात यह है कि पति के अनुमापक परामर्श के समय यदि घट का भी अनुमापक परामर्श रहता है, तो पति की अनुमिति के साथ घट की भी अनुमिति होती है, अतः घर के मानससामान्य के प्रति वति के अनुमापक परामर्श को प्रतिबन्धक मानने में व्यभिचार भी होगा, यदि इस ध्यभिचार का धारण करने के लिये घटादि के मानस के प्रति घटादिअनुमापक परामर्शा भाष से विशिष्ट वह्नयनुमापकपरामर्श को प्रतियन्धक माना जायगा तो प्रतिबध्य-प्रतिप्रतिबन्धकमाव का कलेवर और गौरवग्रस्त हो जायगा, अतः इससे अच्छा पक्ष यही होगा कि अनुमिति का अन्तभाष मानसशान में न कर मानसमात्र के प्रति परामर्श को प्रतिबन्धक मान लिया जाय । यदि यह शंका हो कि-"मान समात्र के प्रति परामर्श को प्रतिबन्धक मान लेने पर परामर्शरूप 'अनुमितिसामग्री के समय सुखदुःख का मानसप्रत्यक्षरूप भोग भी । हो सकेगा"-तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सुखदुःख का उदय होने पर उस का भोग ही होता है, अन्य कोई शान नहीं होता, अतः भोगान्यज्ञान के प्रति सुख और दुःख को उभयानुगतजातिरूप से प्रतिबन्धक मानना अनिवार्य है, तो फिर उस उभयानुगतजातिरूप से सुख-दुःख को मानसमात्र के प्रति अनुमितिसामग्री की प्रतिबन्धकता में उत्तेजक मान कर मानसमात्र के प्रति विजातीयसुखाद्यभावविशिभनुमितिसामग्री को प्रतिबन्धक भानने से अनुमितिसामग्रो के समय सुखदुःख के भोग की अनुपपत्ति नहीं होगी। इस विषय में अधिक जानकारी के लिये ग्रन्थकार ने अपने अन्ध न्यायालोक और स्थाद्वादरहस्य को देखने का संकेत किया है ॥४२॥ ३३ से ४२ वी कारिका पर्यन्त पोतना भूतों की शक्ति है इस शक्तिपक्ष की समीक्षा की गई, अब ४३ चौ कारिका में 'चेतना भूतों का कार्य है' इस कार्यपक्ष की समीक्षा की गयी है। जय प्रथमक्षण भावी शान में अप्रमाण्य का ज्ञान, दूसरे क्षण में परामर्श और तीसरे क्षण में सुख यो दुःख उत्पन्न हो तब ऐसी स्थिति बन सकती है। शा. पा. १८ - -
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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