________________
२२४
.... शास्त्रवातासमुराध-स्तवक १ लो० ९१ विष्य बिना"न्या. 'कु०१-९]इति । अथ नरादिशरीरपैविध्यं तदुपादानवैविण्यादेव, भौगनिध्यं च पानिधान, बारीरसंयोगवामानादावियात्मन्यपि, इत्यहष्ट कशेपयुज्य. तामी इति चेत् न, घरीरसंयोगस्याकापादावपि सत्वेन तत्रापि मोगापत्तेः । उपप्रमकसंयोगेन शरीरस्य मोगनियामकस्वे तु वासंयोगप्रयोजकतयवादृष्टसिद्धः ॥११॥
इस उत्तर के विषय में यह शमा हो सकती है कि- "मनुध्य पूर्व जन्म में जो विविध किया करताजाही से जन्मान्तर में उले मर आदि के बारीर को प्राप्ति हो जायगा फिर उन क्रियामो और जम्मान्तर में प्राप्त होनेयाले नरादि शरीर के बीच मिरर्थक अष्ट की कहाना असंगत है।"-इस शङ्का का उार यह है कि पूर्वजन्म की क्रिया पूर्वजन्म में पी गए हो आसो है भतः या जन्मान्तर में मोले स्वर्ग गरादि शरीर का कारण नही हो सकती, क्योंकि यह मिपम कि 'जो कारण कार्य से व्यशिन होना है, अर्थात कार्यशाम के समय स्वयं नहीं रख सा बद का जप तप रह सपनपने कभी व्यापार के द्वारा ही कार्य का अनक है' RTः पूर्वमन्म को क्रिया जब जामान्तर में गराविशरीर की प्रासि के समय नहीं मानी तब उस समय रहने वाला कोई उनका व्यापार मानना हा होगा, इस प्रकार का जो पापार अवश्यमाग्य शिकी का नाम , अक्षर मथवा कर्म । ___ उक्त का का सही उत्तर भ्यायाचार्य उदयन ने अपने न्यायकुसुमामलि प्रम्य में 'चिरम्वस्तं.' कारिका में भी दिया है. जिसका अर्थ इस प्रकार है--
'मनुस्य की क्रिया भावी काल के चिरपूर्व ही ना हो जाती है अनः बह भाषी फल के सम्म समय तक रहमेषाले अपने किसी व्यापार के बिना कालान्तर में माधो फल को नहीं उत्पन्न कर सकती।'
उक्त उमर के सम्बन्ध में पक या न होता है कि-"मात्मा को मनुष्य, पशु, पक्षी मावि मो विधि शरीर मात होते है. उन शरी, की मित्रता उनके उपावान कारणों ही विचित्रता से हो सकती है और शरीरों द्वारा आत्मा को जो विचित्र भोग होते है, उनकी विनिता शरीरों को चिन्मित्रता से हो सकती है और शरीर का संयोग से भाकाश मावि के साथ होता है वैसे ही आत्मा के साथ भी सहज रूप मे हो सम्पन्न हो सकता है, तो प्रकार. मनुष्य, पत्र, पक्षी वादि के रूप में प्रात्मा का विध्य जम जात रीति से उपपन्न होता है तब उस चिय के उपपादन में अहए का क्या उपयोग है?"-Tस प्रयास का 31 मा कि आकाश आदि के समान शात्मा में सहजरूप से
धाले सामान्य संयोग से भोग की सिद्धि नहीं हो सकतो; क्योंकि उस संयोग से पर्वि भोग होगा तो उस प्रकार का शरीरसंयोग नो गाकाश आदि में भी होता है अतः मौकाश मावि में भी सुखदुःख के भोग की श्रामि दांगी । इसलिए गात्मा के साथ पारी के उपरम्भक-विजातीयर्सयोग को ही माग का नियामक मानना होगा, और यह विनांतोय संयोग भए के बिना किली मन्य हेतु से नहीं हो सकना, अतः उस संयोग के सम्पादनार्थ मर की सत्ता भनिधारका से स्वीकार्य है ॥२१॥