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शास्त्रधार्तासमुच्चय-इतबक १ प्रलो ७७ कन्दली कारस्तु 'आरोपित नील रूपं तम' इत्याह । तन्न, नोमीद्रव्योपरक्तेषु यस्त्रचर्मादिपु तमोत्ययहारप्रसङ्गत. 'गणे शुक्रादयः पंसि (म. को०१-५-१७) इत्यनुशासनेन भूमादिपदजन्यमूकसायश्चिान्नमुखयविशेण्यताकशाब्दबोधे पुलिझकाक्वादिषदशक्तिशानजन्योपस्थितेतृत्वेन 'नीलस्तम' इति प्रयोगप्रसङ्गाख । न चात्र नोछस्य तमोविशेषणत्वमेव, अनुक्कलिङ्गविशेषगपराना प विशेष्यालिबनाया औत्सर्गिकत्वात् नीलपवे लोवत्वमिति वायम्; नोलस्य सामान्धतया विशेष्यवान्. विशेषणविशेष्पभाषे कामचाभिधानस्य परस्परभ्यभिचारितदयविषयत्वादिति दिक। की प्रतीनि कैसे होगा ? क्योंकि वह शान्त गालोक रहने से आलोक विरोधी तम का अस्तिष मही हो सकता ।' इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वहां जो तम की प्रताति होती है वह भ्रम है । क्योंकि शालोक के ससे भी जा रहां आलोक का शत रही होना है उसके अनुरोध से भालोकदशेन का कोई न कोई प्रतिबन्धक मानना ही होगा. फिर जो आलोकवर्णन का प्रतिबन्धक लोगा यही नम के भ्रम का जनक दोष हो जायगा । मतः उपर्युक्त कारणों से भालेोकदर्शनाभाय को तम मानना उचित नही है।
[आरोगतमलरूप हो तम है-मन्दलो कारमत] न्यायकन्दलाकार श्रीकण्ठ का कहना है कि भारोपित नीरूप ही नम है। उनका आशय यह है कि जहा थालोक महों होता, वहा मौलिमा की प्रतीति होती है, यह सार्वजनीन मनुभष है, असा शालोकशम्य वेश में प्रतीयमान इस नीलरूप को ही सम मान लेना चाहिये उससे अतिरिक्त जम की कल्पना अनावश्यक है, नीलकममात्र को तम मानमे पर आलोक शम्य सानील देश में सम की प्रतीति न हो सोपी, कोकि यहाँ वास्तविक नीलकप नहीं है, अतः भारोषित नीलकप को नम कहा गया है। अनील देश में भी आलोकाभाव के समय नीलरूप का मारोप होने से यहां भी भारोपित मोलरूप सुलम हो जाने से स पक्ष में वहाँ तमापतीति की अनुपपति नही हो सकती।"
[कन्दलीकारमत का खंडन] विचार करने पर यह कथन भी ठीक नहीं पता, क्योकि आरोपित नीलरूप को तम मानने पर मोली मुख्य से संसट आलोकस्थ वस्त्र, धर्म गाधि में भी नीलकप का भारोप होने से उस पशा में भालोकस्थ वस्त्र आदि में भी तम को प्रतीति होने लगेगी। इसके अतिरिक भी एक दोष है, वह यह कि आरोपित नीलहर को तम मानने पर 'नीले नमः'केवरले 'नीकस्तमः' या प्रयोग होने लगेगा, क्योंकि इस पाश्य में नील शार गुपरक एवं मुख्य विशेष्य का धावक है. और अमरकोश का यह अनुशासन
कि "गुणे शुषलावयः पुसि गुणिलिङ्गास्तु तहनि-शुपापरक शुक्ल आदि सम्म पुलिस होते है और गुणायपरकोने पर गुणाय के पोधक सन्निहित शम्य के समालिक होते है तथा इस अनुशासन के आधार पर या कार्यकारणभाष कि शुक्ल मानि पषो से होने वाले शुक्ला व गुण को मुवषिशेष्य के रूप में विषय करने वाले हामपोध के प्रति पुस्लिा गुल्ल मावि बान के शक्तिवान से उत्पन्न होने वाली गुलादिगुण