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शा. बा. समुच्चय (स्या.) अत्राऽऽयपादेन मङ्गलं, निबद्धम्, मालेन स्वशास्त्रसिद्धावपि सन्निबधेन श्रोतृणामनुषङ्गतोऽपि मङ्गलोपपत्तेः; शास्त्रवार्तासंग्रहश्वामिधेयतयोक्तः ॥१॥ इसलिये प्रकृत में द्वितीया वियिता यह शास्त्रधाारूप विषय से निरूपित होने के कारण उसमें समुच्चयशब्दार्थ का स्वाश्रयनिरूपितत्व सम्बन्ध से अन्य मानने में कोई भनुप पत्ति नहीं है।
किन्तु यह समीक्षा ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार 'पाणिपादं वादय -हायपांघ का यायन करो इसवाक्य में 'पाणिपाद' शब्द के उत्तर सुनी जाने वाली द्वितीया विभक्ति के अर्थ 'धावन के मता' में पाणिपाद शब्द के अर्थ पाणिपाद समाहार का स्थाअयनिरूपितत्व सम्बन्ध से अन्वय अनुभव सिद्ध है उसी प्रकार प्रकृत में अभिधान कर्मता से शास्त्रवार्ताओं के सच्चलन का स्वाश्रयनिरुपितत्व सम्बन्ध से अन्धय अनुभवसिद्ध नहीं है, अतः 'पाणिपाद पादय' के अनुसार 'शास्त्रवार्तासमुच्चयम्' के द्वितीया का अषय नहीं माना जा सकता ।
आशय यह है कि 'पाणिपान' शच. पाणि और पाद शब्दों का समाहार अर्थ में इन्द्रसमास करने से निष्पन्न होता है. अतः उसका अर्थ होता है, पाणि और पाद का समाहार । 'समाहार' का अर्थ है बुद्धिविशेषविषयता, फलतः पाणिपाद में विद्यमान जो पाणिपाद को ग्रहण करने वाली बुद्धि की विषयता, वही पाणिपाद का समाहार है, और समाहार वादन का कर्म नहीं होता, किन्तु बादन का कर्म होता है समाहार का आश्रय पाणिपाद, अतः 'पाणिपादं षादय' में बावनकर्म के साथ पाणिपाद समाहार का स्वाश्रयनिपितत्व सम्बन्ध से अन्वय अगत्या मानना पड़ता है, किन्तु शास्त्रर्वार्ता समुखश्चयम् अमिधाम्ये' में 'कदाभिहित न्याय से समुच्चयशब्दार्थ से विशेधित शास्त्रवार्ता का अभिधानकमंता के साथ साक्षात् निरूपितन्य सम्बन्ध से अन्वय हो सकता है, अतः समुच्चय शब्दार्थ का स्वाश्रयनिरूपितत्वरूप परम्परा सम्बन्ध से अन्वय मानना भी अना. वश्यक पवं अनुभव विरुद्ध है।
मूल ग्रन्ध के प्रारम्भिक पद्य में पहले पाद 'प्रणम्य परमात्मान' से मङ्गल को प्रन्ध में निबद्ध किया गया है, ग्रन्थपूर्ति तो मङ्गल को ग्रन्थ से बाहर रखने पर भी हो सकती थी, अतः ग्रन्थ की पूति ङ्गल को ग्रन्थ में सम्मिलित करने का उद्देश्य नहीं है, उसका उदेश्य है अन्याध्ययन के अनुषङ्ग से अध्येता द्वारा मङ्गल का सम्पादन । स्पष्ट है कि प्रन्य में मङ्गल का उल्लेख रहने पर ग्रन्थ का अध्ययन आरम्भ करते समय अध्येता द्वारा माल का अनुष्ठान अनायास ही सम्पन्न हो जाता है।
प्रस्थ के नामकरण से यह सूचित किया गया है कि विभिन्न शास्त्रों के सहलित - सिद्धान्त इस ग्रन्थके अभिधेय है, यह ज्ञातव्य है कि माङ्गलिक पय द्वारा केवल ग्रन्थ का
अभिधेय ही नहीं बताया गया है अपितु 'अलाबुद्धीनां सत्त्वानाम्' कह कर अधिकारी, 'अभिधास्ये' कह कर अन्ध के साथ अभिधेय का प्रतिपादकत्व सम्बन्ध और 'हितकाम्यया' कह कर अल्पन अध्येताओं को विभिन्न शास्त्रों के सिद्धान्तों का शानरूप प्रयोजन भी बताया गया है।