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स्या० १० टीका व हिं० वि०
अङ्गीकृतं च पातञ्जलैरप्येतत्-"अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः (पा. १ -१२)। ताः प्रमाण विपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतिलक्षणाः पञ्च वृत्तयः (पा. १-३)। 'तत्र प्रत्यक्षादीनि ममाणानि (पा. १-७) । 'विपर्ययो मिथ्याज्ञानम् (पा.१-८)। तद् "अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशभेदेन पञ्चविधम् (पा. २-३) । 'अनित्याऽशुचिदुःखाऽनात्मसु नित्यशुचिसुखाऽत्मख्यातिरविधा (पा. २-५) । दृग्दर्शनशनयोरेकात्मतेवाऽस्मिता (पा. २-६)। 'सुखानुशयी रागः (पा. २-७) । दुःखानुशयी द्वेषः (पा. २--८)। "स्वरसवाहो विदुषोऽपि तथारुढोऽभनिवेश(पा. २-९) । "शब्दमानानुपाती वस्तुशुन्यः प्रमाभ्रमविलक्षणोऽसदर्थव्यवहारो विकल्पः (पा. १-९), शशविषाणम् , असत्पुरूपस्य चैतन्यमित्यादि । “अभावप्रत्ययालम्बनाधृत्तिनिद्रा (पा. १-१०), चतसाणां वृत्तीनामभावस्य प्रत्यया-कारणं तमोगुणस्तदालम्बना वृत्तिनिद्रा, न त, ज्ञानाद्यभावमात्र. मिति भावः । अनुभूतविषयासम्प्रमोषप्रत्ययः स्मृतिः (पा. १--११), पूर्वानुभवसंस्कार झानमित्यर्थः । साप्त नियसपासनानां यः। संचाभ्यासेन वैराग्येण च भवति ।। है। क्योकि दुष्ट आशंसा से ऐहिक वा पारलौकिक फल की कामना से तप करने का निषेध है, जैसे कि 'नो इहलोगवाए.' इत्यादि वसनों से स्पष्ट है कि न पहलौकिक फलके लिये तप का अनुष्ठान करना चाहिये, और न पारलौकिक फल के लिये तप का अनुष्ठान करना चाहिये । तप भी बान संयम के अभाव में अकेला मोक्ष के लिये पर्याप्त नहीं है, क्योंकि केवल तप से विशिष्ट निजेरा यानी प्रचुर 'सकाम निजस एवं नूतनकात्रवण -निरोधपूर्वक निर्मरा को सिद्धि नहीं होती । ज्ञान, संयम और तप तोनों मिल कर ही क्रमशः प्रकाश, अनाश्रय एवं व्यवदान-तस्ववोध, कर्मनिरोध एवं कर्मक्षय रूप च्यापारों द्वारा अशेष कर्मबन्धनों के निर्तक होते हैं । अभ्यास से क्षायोपशमिक भाव की वृद्धि होने से अशुभ वासनाओं का क्षय हो कर अभिमत फल की प्राप्ति शीघ्रता से होती है । अतःशान-संयम युक्त तप के अभ्यास की उपयोगिता निर्विवाद है।
(पातञ्जल मत से समर्थन) पतञ्जलिके मतानुयायियों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि 'अभ्यास और वैराग्य से वृत्तियों का निरोध होता है। वृत्तियां पाँच हैं, प्रमाण, विपर्यय, विक ल्प, निद्रा और स्मृति । 'प्रमाण तीन है-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्न् । "विपर्यय का अर्थ है मिथ्याशान । 'उसके पाँच मेद हैं अविद्या, अस्मिना, राग, द्वेष और अभिनिवेश। 'अविद्या का अर्थ है अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा को क्रम से नित्य, शुद्धि, मुख और आत्मा समझना । "अस्मिता का अर्थ है रक्शक्ति और दर्शनशक्ति को एक भागना । 'राग का अर्थ है सुखानुभय के फल स्वरूप सुख में आसक्ति का होना ।
1. सकाम निर्जग अर्थात् निर्जरा की ही कामना से किये गए सुकृताचरण या परीवह सहन से होने वाली कर्मनिर्जरा यानी कर्मक्षय ।